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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
नव॒ यो न॑व॒तिं पुरो॑ बि॒भेद॑ बा॒ह्वोजसा। अहिं॑ च वृत्र॒हाव॑धीत् ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ । य: । न॒व॒तिम् । पुर॑: । बि॒भेद॑ । बा॒हुऽओ॑जसा । अहि॑म् । च॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒व॒धी॒त् ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा। अहिं च वृत्रहावधीत् ॥
स्वर रहित पद पाठनव । य: । नवतिम् । पुर: । बिभेद । बाहुऽओजसा । अहिम् । च । वृत्रऽहा । अवधीत् ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
विषय - वृत्रहा
पदार्थ -
१. (यः) = जो (वृत्रहा) = ज्ञान को आवरणभूत कामवासना को विनष्ट करनेवाला है वह (बाहु+ओजसा) = अपनी भुजाओं के बल से-सदा उत्तम कर्म से लगे रहने के द्वारा नवनवति (पुर:) = असुरों की निन्यानवे पुरियों का (बिभेद) = विदारण करता है। हमारे जीवन में आसुरभाव उत्पन्न होते हैं। वे दृढमूल होते जाते हैं। मानो वे अपने दुर्ग बना लेते हैं। सतत क्रियाशीलता के द्वारा हम सौ वर्ष के आयुष्य में निन्यानवे बार इनका विदारण करते हैं और प्रत्येक वर्ष को सुन्दर बनाने का प्रयत्न करते हैं। २. (च) = और यह (वृत्रहा अहिम्) [आहन्तारम्] = सब प्रकार से विनष्ट करनेवाले इस वासनारूप शत्रु को (अवधीत्) = मार डालता है।
भावार्थ - क्रियाशीलता के द्वारा हम वासनाओं को अपने जीवन में दृढमूल न होने दें।
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