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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
स न॒ इन्द्रः॑ शि॒वः सखाश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत्। उ॒रुधा॑रेव दोहते ॥
स्वर सहित पद पाठस: । न॒: । इन्द्र॑: । शि॒व: । सखा॑ । अश्व॑ऽवत् । गोऽम॑त् । यव॑ऽमत् । उ॒रुधा॑राऽइव । दो॒ह॒ते॒ ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
स न इन्द्रः शिवः सखाश्वावद्गोमद्यवमत्। उरुधारेव दोहते ॥
स्वर रहित पद पाठस: । न: । इन्द्र: । शिव: । सखा । अश्वऽवत् । गोऽमत् । यवऽमत् । उरुधाराऽइव । दोहते ॥७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
विषय - शिवः सखा
पदार्थ -
१. (सः) = वह (इन्द्रः) = शत्रुओं का द्रावण करनेवाला प्रभु (न:) = हमारा (शिवः सखा) = कल्याणकर मित्र है। प्रभु ही सर्वमहान् मित्र है। २. ये प्रभु (उरुधारा इव) = विशाल दुग्ध धाराओंवाली कामधेनु के समान हमारे लिए उस ऐश्वर्य को (दोहते) = प्रपूरण करते है, जोकि (अश्वावत्) = प्रशस्त कर्मेन्द्रियोंवाला है, (गोमत्) = प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाला है तथा यवमत्-बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाला है [यु मिश्रणामिश्रणयोः]।
भावार्थ - प्रभु हमारे कल्याणकर मित्र हैं। वे हमारे लिए उत्तम ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को प्राप्त कराके हमारे जीवन से बुराइयों को दूर करते हैं तथा अच्छाइयों को हमारे साथ संगत करते है।
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