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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 7
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७६

    आ मध्वो॑ अस्मा असिच॒न्नम॑त्र॒मिन्द्रा॑य पू॒र्णं स हि स॒त्यरा॑धाः। स वा॑वृधे॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्या अ॒भि क्रत्वा॒ नर्यः॒ पौंस्यै॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मध्व॑: । अ॒स्मै॒ । अ॒सि॒च॒न् । अम॑त्रम् । इन्द्रा॑य । पू॒र्णम् । स: । हि । स॒त्यऽरा॑धा: ॥ स: । व॒वृ॒धे॒ । वीर॑मन् । आ । पृ॒थि॒व्या: । अ॒भि । क्रत्वा॑ । नर्य॑: । पौंस्यै॑: । च॒ ॥७६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मध्वो अस्मा असिचन्नमत्रमिन्द्राय पूर्णं स हि सत्यराधाः। स वावृधे वरिमन्ना पृथिव्या अभि क्रत्वा नर्यः पौंस्यैश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मध्व: । अस्मै । असिचन् । अमत्रम् । इन्द्राय । पूर्णम् । स: । हि । सत्यऽराधा: ॥ स: । ववृधे । वीरमन् । आ । पृथिव्या: । अभि । क्रत्वा । नर्य: । पौंस्यै: । च ॥७६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. (अस्मा इन्द्राय) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए इस (पूर्णम् अमत्रम्) = सब प्रकार की कमियों से रहित शरीररूप पात्र को (मध्वः) = मधु से-सोम से (असिचन्) = सिक्त करते हैं। इस शरीर में प्रभु ने उन्नति के लिए आवश्यक सब साधनों को जुटाया है। [अम] गति के द्वारा [त्र] इसका रक्षण होता है, अतः इसे 'अम-त्र' नाम दिया गया है। इसमें आहार की सारभूत वस्तु 'मधु'-सोम है। इसके रक्षण से ही 'शरीर, मन व मस्तिष्क' में स्वस्थ बनकर हम प्रभु-दर्शन के योग्य बनते हैं। २. इस सोम का रक्षण करनेवाला (स:) = वह पुरुष (हि) = निश्चय से (सत्यराधा:) = सत्य सम्पत्तिवाला होता है। (स:) = वह (पृथिव्याः) = पृथिवी के (वरिमन) = विस्तार में (आवावृधे) = सब प्रकार से बढ़ता है। यह शरीररूप पृथिवी की सब शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है। यह (नर्य:) = नरहितकारी पुरुष (अभि) = दोनों ओर-अन्दर और बाहर-अन्दर तो (क्रत्वा) = प्रज्ञान व शक्ति से (च) = तथा बाहर (पौंस्यैः) = वीरतापूर्ण कर्मों से बढ़ता हुआ होता है। ऐसा बनकर हो यह प्रभु को प्राप्त करता है।

    भावार्थ - हम शरीर को वीर्य से सिक्त करें। सोम-रक्षण द्वारा इसे प्रज्ञान व शक्ति से परिपूर्ण करके नरहितकारी कार्यों में प्रवृत्त हों। यही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है।

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