अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 8
व्या॑न॒डिन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ आस्मै॑ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः। आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया॑ सुम॒त्या चो॒दया॑से ॥
स्वर सहित पद पाठवि । आ॒न॒ट् । इन्द्र॑: । पृत॑ना: । सु॒ऽओजा॑: । आ । अस्मै॑ । य॒त॒न्ते॒ । स॒ख्याय॑ । पू॒र्वी: ॥ आ । स्म॒ । रथ॑म् । न । पृत॑नासु । ति॒ष्ठ॒ । यम् । भ॒द्रया॑ । सु॒ऽम॒त्या । चो॒दया॑से ॥७६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यानडिन्द्रः पृतनाः स्वोजा आस्मै यतन्ते सख्याय पूर्वीः। आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥
स्वर रहित पद पाठवि । आनट् । इन्द्र: । पृतना: । सुऽओजा: । आ । अस्मै । यतन्ते । सख्याय । पूर्वी: ॥ आ । स्म । रथम् । न । पृतनासु । तिष्ठ । यम् । भद्रया । सुऽमत्या । चोदयासे ॥७६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 8
विषय - प्रभुरूप सारथि द्वारा विजय-प्राप्ति
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार सोम-रक्षण के द्वारा (स्वोजा:) = उत्तम ओजवाला (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (पृतना:) = शत्रुसैन्यों को (व्यानट्) = विशेषरूप से घेरनेवाला-उन्हें पराभूत करनेवाला बनता है। काम, क्रोध के परिभव के द्वारा पूर्वी: अपना पूरण करनेवाले लोग अस्मै सख्याय-इस प्रभु की मित्रता के लिए (आयतन्ते) = सर्वथा प्रयत्न करते है। २. ये प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि (न) = जैसे (पृतनास) = संग्रामों में (रथम्) = रथ पर सारथि स्थित होता है, उसी प्रकार हे प्रभो! आप भी (स्म) = निश्चय से [रथम्] (आतिष्ठ) = हमारे इस शरीर-रथ पर स्थित होइए। उस रथ पर स्थित होइए (यम्) = जिसको कि आप (भद्रया समत्या) = कल्याणी सुमति से (चोदयासे) = प्रेरित करते हैं। इस कल्याणी मति को प्राप्त कराके ही प्रभु हमें विजयी बनाते हैं।
भावार्थ - प्रभु मेरे शरीर-रथ के सारथि हों। मैं अपनी जीवन-दिशा को प्रभु के निर्देश से निश्चित करूँ। प्रभु के निर्देश से चलनेवाला व्यक्ति 'वामदेव'-सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बनता है। यह प्रार्थना करता है कि -
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