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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
    सूक्त - वामदेवः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७७

    आ स॒त्यो या॑तु म॒घवाँ॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः। तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । स॒त्य: । या॒तु । म॒घऽवा॑न् । ऋ॒जी॒षी । द्रव॑न्तु । अ॒स्य॒ । हर॑य: । उप॑ । न॒: ॥ तस्मै॑ । इत् । अन्ध॑: । सु॒सु॒म॒ । सु॒ऽदक्ष॑म् । इ॒ह । अ॒भि॒ऽपि॒त्वम् । क॒र॒ते॒ । गृ॒णा॒न: ॥७७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सत्यो यातु मघवाँ ऋजीषी द्रवन्त्वस्य हरय उप नः। तस्मा इदन्धः सुषुमा सुदक्षमिहाभिपित्वं करते गृणानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । सत्य: । यातु । मघऽवान् । ऋजीषी । द्रवन्तु । अस्य । हरय: । उप । न: ॥ तस्मै । इत् । अन्ध: । सुसुम । सुऽदक्षम् । इह । अभिऽपित्वम् । करते । गृणान: ॥७७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (सत्यः) = सत्यस्वरूप, (मघवान्) = ऐश्वर्यशाली, (ऋजीषी) = ऋजुता की प्रेरणा देनेवाला-कटिलता को दूर करनेवाला [ऋजु+इष] प्रभु (आयातु) = हमें प्राप्त हो। (अस्य) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के (हरयः) = इन्द्रियाश्व (न: उपद्रवन्तु) = हमें समीपता से प्राप्त हों। ये इन्द्रियाँ हमें प्रभु की ओर ही ले जानेवाली हों। २. (तस्मा इत्) = उस प्रभु की प्राति के लिए ही (अन्धः) = सोम को (सुषुम) हम उत्पन्न करते हैं। यह सोम (सुदक्षम्) = उत्तम बल को प्राप्त करानेवाला है। हमें बल-सम्पन्न बनाकर ही यह सोम हमें प्रभु-प्राति का पात्र बनाता है। ये प्रभु (इह) = इस जीवन में (गणान:) = स्तुति किये जाते हुए (अभिपित्वम्) = हमारे अभिमत की प्राप्ति को करते-करते हैं। प्रभु का स्तवन यही है कि हम प्रभु से उत्पादित इस सोम का रक्षण करें। सोम-रक्षण से शक्तिशाली इन्द्र बनकर उस 'महान् इन्द्र' का सच्चा उपासन करते हैं।

    भावार्थ - हमारी इन्द्रियाँ हमें उस सत्यस्वरूप, ऐश्वर्यशाली, ऋजुता की प्रेरणा देनेवाले प्रभु की ओर ले-चलें। प्रभु-प्राप्ति के उद्देश्य से ही सोम का रक्षण करते हुए हम प्रभु को प्राप्त करें। प्रभु ही सब इष्टों को प्राप्त करानेवाले हैं।

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