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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    सूक्त - वामदेवः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७७

    क॒विर्न नि॒ण्यं वि॒दथा॑नि॒ साध॒न्वृषा॒ यत्सेकं॑ विपिपा॒नो अर्चा॑त्। दि॒व इ॒त्था जी॑जनत्स॒प्त का॒रूनह्ना॑ चिच्चक्रुर्व॒युना॑ गृ॒णन्तः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒वि: । न । नि॒ण्यम् । वि॒दथा॑नि । साध॑न् । वृषा॑ । यत् । सेक॑म् । वि॒ऽपि॒पा॒न: । अर्चा॑त् ॥ दि॒व: । इ॒त्था । जी॒ज॒न॒त् । स॒प्त । का॒रून् । अह्ना॑ । चि॒त् । च॒क्रु॒ । वयुना॑ । गृ॒णन्त॑: ॥७७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कविर्न निण्यं विदथानि साधन्वृषा यत्सेकं विपिपानो अर्चात्। दिव इत्था जीजनत्सप्त कारूनह्ना चिच्चक्रुर्वयुना गृणन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कवि: । न । निण्यम् । विदथानि । साधन् । वृषा । यत् । सेकम् । विऽपिपान: । अर्चात् ॥ दिव: । इत्था । जीजनत् । सप्त । कारून् । अह्ना । चित् । चक्रु । वयुना । गृणन्त: ॥७७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (कविः न निण्यम्) = जैसे एक कान्तदर्शी पुरुष अन्तर्हित-गूढ तत्त्वार्थ को जान लेता है,इसी प्रकार (विदथानि) = ज्ञानों को (साधन्) = सिद्ध करता हुआ (वृषा) = शक्तिशाली पुरुष (यत्) = जब (सेकम्) = शरीर में सेचनीय सोम को (विपिपान:) = विशेषरूप से पीता हुआ-शरीर में ही वीर्य को सुरक्षित करता हुआ (अर्चात्) = प्रभु की उपासना करता है। प्रभु से दी गई इस सर्वोत्तम धातु का रक्षण प्रभु का अर्चन ही हो जाता है। २. (इत्था) = इसप्रकार वीर्यरक्षण के द्वारा सप्त-'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व जिला' इन सातों को (दिवः कारून्) = प्रकाश [ज्ञान] का उत्पन्न करनेवाला (जीजनत्) = बनाता है और (अह्ना चित्) = एक ही दिन में, अर्थात् अति शीघ्र ही (गृणन्त:) = स्तुति करते हुए ये लोग (वयुना चक्रुः) = अपने में प्रज्ञानों को उत्पन्न करनेवाले होते हैं। सुरक्षित वीर्य ज्ञानाग्नि का इंधन बन ज्ञान को दीस करनेवाला होता है।

    भावार्थ - स्वाध्याय में प्रवृत्त होने से वीर्य का रक्षण सम्भव होता है। वीर्यरक्षण ही प्रभु का सच्चा समादर है। यह सुरक्षित वीर्य सब ज्ञानेन्द्रियों को शक्तिशाली बनाता है और शीघ्र ही हमारी ज्ञानाग्नि की दीप्ति का कारण बनता है।

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