अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 7
अ॒पो वृ॒त्रं व॑व्रि॒वांसं॒ परा॑ह॒न्प्राव॑त्ते॒ वज्रं॑ पृथि॒वी सचे॑ताः। प्रार्णां॑सि समु॒द्रिया॑ण्यैनोः॒ पति॒र्भव॒ञ्छव॑सा शूर धृष्णो ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प: । वृ॒त्रम् । प॒वि॒ऽवांस॑म् । परा॑ । अ॒ह॒न् । प्र । आ॒व॒त् । ते॒ । वज्र॑म् । पृ॒थि॒वी । सऽचे॑ता: ॥ प्र । अर्णा॑सि । स॒मु॒द्रिया॑णि । ऐ॒नो॒: । पति॑: । भव॑न् । शव॑सा । शू॒र॒ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ ॥७७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो वृत्रं वव्रिवांसं पराहन्प्रावत्ते वज्रं पृथिवी सचेताः। प्रार्णांसि समुद्रियाण्यैनोः पतिर्भवञ्छवसा शूर धृष्णो ॥
स्वर रहित पद पाठअप: । वृत्रम् । पविऽवांसम् । परा । अहन् । प्र । आवत् । ते । वज्रम् । पृथिवी । सऽचेता: ॥ प्र । अर्णासि । समुद्रियाणि । ऐनो: । पति: । भवन् । शवसा । शूर । धृष्णो इति ॥७७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 7
विषय - पृथिवी सचेता:
पदार्थ -
१. (अप:) = रेत:कणों को (वविवांसम्) = आवृत कर लेनेवाले (वृत्रम्) = कामरूप इस शत्रु को (पर्यहन्) = आप सुदूर विनष्ट करते हो। (सचेता) = चेतनावाला-समझदार (पृथिवी) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला मनुष्य (ते) = आपके दिये हुए (वज्रं प्रावत्) = क्रियाशीलता रूप वज्र को प्रकर्षण रक्षित करता है। सदा क्रियाशील बने रहकर यह वृत्र के आक्रमण से अपने को बचाये रखता है। २. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (धृष्णो) = धर्षकशक्ति से युक्त प्रभो! आप (शवसा) = अपने बल के द्वारा (पतिःभवन्) = हमारे रक्षक होते हुए (समुद्रियाणि) = ज्ञानैश्वर्य के आधारभूत वेदरूप समुद्रों के (अर्णांसि) = ज्ञान-जलों को (प्रऐनो:) = प्रकर्षेण प्रेरित करते हैं। कर्मशक्ति व ज्ञान देकर ही तो आप हमारा रक्षण करते हैं।
भावार्थ - समझदार पुरुष क्रियाशील बनकर बासना से बचा रहता है। वासना-विनाश से शक्ति व ज्ञान का वर्धन करके यह ज्ञानसमुद्र के रत्नों को पानेवाला बनता है।
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