अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 8
अ॒पो यदद्रिं॑ पुरुहूत॒ दर्द॑रा॒विर्भु॑वत्स॒रमा॑ पू॒र्व्यं ते॑। स नो॑ ने॒ता वाज॒मा द॑र्षि॒ भूरिं॑ गो॒त्रा रु॒जन्नङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प: । यत् । अद्रि॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । दर्द॑: । आ॒वि: । भु॒व॒त् । स॒रमा॑ । पू॒र्व्यम् । ते॒ ॥ स: । न॒: । ने॒ता । वाज॑म् । आ । द॒र्षि॒ भूरिम् । गो॒त्रा । रु॒जन् । अङ्गि॑र:ऽभि: । गृ॒णा॒न: ॥७७.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो यदद्रिं पुरुहूत दर्दराविर्भुवत्सरमा पूर्व्यं ते। स नो नेता वाजमा दर्षि भूरिं गोत्रा रुजन्नङ्गिरोभिर्गृणानः ॥
स्वर रहित पद पाठअप: । यत् । अद्रिम् । पुरुऽहूत । दर्द: । आवि: । भुवत् । सरमा । पूर्व्यम् । ते ॥ स: । न: । नेता । वाजम् । आ । दर्षि भूरिम् । गोत्रा । रुजन् । अङ्गिर:ऽभि: । गृणान: ॥७७.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 8
विषय - अविद्या-पर्वतों का भेदक प्रभु
पदार्थ -
१. हे (पुरुहूत) = पालक व पूरक है पुकार जिसकी, ऐसे प्रभो! आप (यत्) = जब (अप:) = हमारे वीर्यकों का लक्ष्य करके (अद्रिम्) = अविद्यापर्वत को (दर्दः) = विदीर्ण करते हैं तब (पूर्व्यम्) = सर्वप्रथम (ते) = आपकी (सरमा) = सब विषयों में चलनेवाली बुद्धि (आविर्भुवत्) = प्रकट होती है। (अविद्या) = विनाश से वीर्य का रक्षण होता है, इससे हममें सूक्ष्मबुद्धि का प्रादुर्भाव होता है। २. (स:) = वे (न:) = हमारे (नेता) = प्रणयन करनेवाले आप (भूरिम्) = पालन व पोषण करनेवाले (वाजम्) = बल व अन्न को (आदर्षि) = प्राप्त कराते हैं। (अंगिरोभिः) = अपने अंगों को रसमय बनानेवाले पुरुषों से (गणान:) = स्तुति किये जाते हुए आप (गोत्रा) = अविद्यापर्वतों का (रुजन्) = विदारण करनेवाले होते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों। प्रभु ही हमारे अविद्यापर्वत का विदारण करेंगे और हमें पालक व पोषक बलों को प्राप्त कराएंगे। ज्ञान व बल को प्राप्त करनेवाला यह उपासक अपने साथ शान्ति को जोड़नेवाला 'शंयु' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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