अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 6
विश्वा॑नि श॒क्रो नर्या॑णि वि॒द्वान॒पो रि॑रेच॒ सखि॑भि॒र्निका॑मैः। अश्मा॑नं चि॒द्ये बि॑भि॒दुर्वचो॑भिर्व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ वि व॑व्रुः ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑नि । श॒क्र । नर्या॑णि । वि॒द्वान् । अ॒प: । रि॒रे॒च॒ । सखि॑ऽभि: । निऽका॑मै: ॥ अश्मा॑नम् । चि॒त् । ये । बि॒भि॒दु: । वच॑ऽभि । व्र॒जम् । गोऽम॑न्तम् । उ॒शिज॑: । वि । व॒व्रु॒रिति॑ । वव्रु: ॥७७.६॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वानि शक्रो नर्याणि विद्वानपो रिरेच सखिभिर्निकामैः। अश्मानं चिद्ये बिभिदुर्वचोभिर्व्रजं गोमन्तमुशिजो वि वव्रुः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वानि । शक्र । नर्याणि । विद्वान् । अप: । रिरेच । सखिऽभि: । निऽकामै: ॥ अश्मानम् । चित् । ये । बिभिदु: । वचऽभि । व्रजम् । गोऽमन्तम् । उशिज: । वि । वव्रुरिति । वव्रु: ॥७७.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 6
विषय - अप: सखिभिः रिरेच
पदार्थ -
१. (शक्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (विश्वानि) = सब नर्याणि विद्वान्-नरहित साधनभूत बातों को जानता हुआ (निकामैः) = प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाले (सखिभि:) = मित्रभूत जीवों के साथ (अपः रिरेच) = वीर्यकों को मिलाता है [रिच-to mix, tojoin] वस्तुत: इन वीर्यकों के द्वारा ही सब हित सिद्ध होते हैं। जीवन-भवन की नीव ये वीर्यकण ही हैं। २. (ये) = जो उपासक (वचोभिः) = स्तुतिवचनों के द्वारा (अश्मानं चित्) = पत्थर के समान दृढ़ भी वासना को (विभिदुः) = विदीर्ण करते हैं, वे (उशिजः) = मेधावी-प्रभु की कामनावाले पुरुष (गोमन्तम्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले (व्रजम्) = बाड़े को (विवव्रुः) = वासना के आच्छादन से रहित करते हैं, अर्थात् इन्द्रियों को वासनाओं से मुक्त करते हैं। अपने को वासनाओं से मुक्त करके ही तो वे वीर्यरक्षण कर पाते हैं।
भावार्थ - हमारे जीवनों को मंगलमय बनाने के लिए प्रभु हमारे साथ वीर्यकणों को जोड़ते हैं। इन वीर्यकणों के रक्षण के लिए प्रभु की उपासना नितान्त आवश्यक है।
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