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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 4
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७६

    कदु॑ द्यु॒म्नमि॑न्द्र॒ त्वाव॑तो॒ नॄन्कया॑ धि॒या क॑रसे॒ कन्न॒ आग॑न्। मि॒त्रो न स॒त्य उ॑रुगाय भृ॒त्या अन्ने॑ समस्य॒ यदस॑न्मनी॒षाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । ऊं॒ इति॑ । द्यु॒म्नम् । इ॒न्द्र॒ । त्वाऽव॑त: । नॄन् । कया॑ । धि॒या। क॒र॒से॒ । कत् । न॒ । आ । अ॒र॒न् ॥ मि॒त्र: । न । स॒त्य: । उ॒रु॒ऽगा॒य॒ । भृ॒त्यै । अन्ने॑ । स॒म॒स्य॒ । यत् । अस॑न् । म॒नी॒षा ॥७६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कदु द्युम्नमिन्द्र त्वावतो नॄन्कया धिया करसे कन्न आगन्। मित्रो न सत्य उरुगाय भृत्या अन्ने समस्य यदसन्मनीषाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । ऊं इति । द्युम्नम् । इन्द्र । त्वाऽवत: । नॄन् । कया । धिया। करसे । कत् । न । आ । अरन् ॥ मित्र: । न । सत्य: । उरुऽगाय । भृत्यै । अन्ने । समस्य । यत् । असन् । मनीषा ॥७६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (कत् उ) = कब निश्चय से (द्युम्नम्) = ज्योति को आप (करसे) = करते हैं और कब कया-आनन्द को देनेवाली (धिया) = ज्ञानपूर्वक क्रियाओं से (नॄन) = हम मनुष्यों को (त्वावतः) = अपने-जैसा करते हैं। (कत्) = कब (न:) = हमें (आगन्) = आप प्राप्त होंगे। आप जैसा बनकर ही तो मैं आपको प्राप्त होने का अधिकारी होता हैं। २. हे (उरुगाय) = खूब ही स्तवन करने योग्य प्रभो! आप (मित्र: न) = मित्र के समान हैं। (सत्यः) = सत्यस्वरूप हैं। आप ही (भूत्यै) = हमारे भरणपोषण के लिए होते हैं। (यत्) = आपने यह भी अद्भुत व्यवस्था की है कि (समस्य) = सबकी (मनीषा:) = बुद्धियाँ (अन्ने) = अन्न में (असन्) हैं। जैसा अन्न कोई खाता है, वैसा ही उसकी बुद्धि बन जाती है। 'आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः'-आहार की शुद्धि पर ही अन्तःकरण की शुद्धि निर्भर करती है।

    भावार्थ - बुद्धिपूर्वक अन्नों का प्रयोग करते हुए हम ज्ञानपूर्वक क्रियाओं से प्रभु-जैसा बनकर, प्रभु को प्राप्त करें।

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