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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 78/ मन्त्र 2
न घा॒ वसु॒र्नि य॑मते दा॒नं वाज॑स्य॒ गोम॑तः। यत्सी॒मुप॒ श्रव॒द्गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । च॒ । वसु॑: । नि । य॒म॒ते॒ । दा॒नम् । वाज॑स्य । गोऽम॑त: ॥ यत् । सी॒म् । उप॑ । श्रव॑त् । गिर॑: ॥७८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न घा वसुर्नि यमते दानं वाजस्य गोमतः। यत्सीमुप श्रवद्गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठन । च । वसु: । नि । यमते । दानम् । वाजस्य । गोऽमत: ॥ यत् । सीम् । उप । श्रवत् । गिर: ॥७८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 78; मन्त्र » 2
विषय - प्रभु-स्तवन से ज्ञान व शक्ति की प्राप्ति
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (वसुः) = सबके बसानेवाले वे प्रभु (गिर:) = हमारी स्तुतिवाणियों को (सीम्) = निश्चय से (उपश्रवत्) = सुनते हैं तब (घा) = निश्चय से (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाले (वाजस्य) = शक्ति के (दानम्) = दान को (न) = नहीं (नियमते) = उपरत करते, अर्थात् हमें ज्ञान व बल को प्राप्त कराते ही हैं।
भावार्थ - प्रभु हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले हैं। इसी उद्देश्य से वे हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराते हैं, अत: हम सदा प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त हों।
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