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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
इन्द्रा या॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यवः॑। अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो । सु॒ता: । इ॒मे । त्वा॒ऽयव॑: ॥ अण्वी॑भि: । तना॑ । पू॒तास॑: ॥८४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः। अण्वीभिस्तना पूतासः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । याहि । चित्रभानो इति चित्रऽभानो । सुता: । इमे । त्वाऽयव: ॥ अण्वीभि: । तना । पूतास: ॥८४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-साक्षात्कार
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (आयाहि) = आप आइए। हे (चित्रभानो) = [चित र] ज्ञान देनेवाली दीप्तिवाले प्रभो! (इमे) = ये (सुता:) = उत्पन्न हुए-हुए सोमकण (त्वायवः) = आपकी कामनावाले हैं। ये सोमकण ज्ञानाग्नि का ईधन बनकर उसे दीप्त कर रहे हैं। इसप्रकार ये सोमकण हमें आपके दर्शन के योग्य बनाते हैं। २. ये सोमकण (अण्वीभिः) = सूक्ष्म बुद्धियों के साथ (तना) = सदा (पूतास:) = पवित्रता को सिद्ध करनेवाले हैं। सोम की रक्षा से जहाँ बुद्धि सूक्ष्म बनती है, वहाँ हृदय भी पवित्र होता है। इसप्रकार ये सोमकण हमें प्रभु-प्राप्ति के योग्य बनाते हैं।
भावार्थ - हे प्रभो। हम सोम की रक्षा के द्वारा बुद्धि को सुक्ष्म बनाएँ। इस सोम-रक्षण से ही हृदयों को भी पवित्र करें। इस प्रकार प्रभु-दर्शन के पात्र बनते हुए प्रभु के अद्भुत प्रकाश का साक्षात्कार करें।
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