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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 83

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
    सूक्त - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८३

    ये ग॑व्य॒ता मन॑सा॒ शत्रु॑माद॒भुर॑भिप्र॒घ्नन्ति॑ धृष्णु॒या। अध॑ स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनू॒पा अन्त॑मो भव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ग॒व्य॒ता । मन॑सा । शत्रु॑म् । आ॒ऽद॒भु: । अ॒भि॒ऽप्र॒घ्नन्ति॑ । धृ॒ष्णु॒ऽया ॥ अघ॑ । स्म॒ । न॒: । म॒घ॒ऽव॒न् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: । त॒नू॒ऽपा: । अन्त॑म: । भ॒व॒ ॥८३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये गव्यता मनसा शत्रुमादभुरभिप्रघ्नन्ति धृष्णुया। अध स्मा नो मघवन्निन्द्र गिर्वणस्तनूपा अन्तमो भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । गव्यता । मनसा । शत्रुम् । आऽदभु: । अभिऽप्रघ्नन्ति । धृष्णुऽया ॥ अघ । स्म । न: । मघऽवन् । इन्द्र । गिर्वण: । तनूऽपा: । अन्तम: । भव ॥८३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 83; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार उत्तम घरों में रहते हुए हम वे बनें (ये) = जो (गव्यता मनसा) = ज्ञान की वाणियों को अपनाने की कामनावाले मन से शत्रुम् (आदभुः) = कामरूप शत्रु को हिंसित करते हैं और (धृष्णुया) = शत्रुधर्षण शक्ति के द्वारा (अभिप्रघ्नन्ति) = इन वासनारूप शत्रुओं का समन्तात् विनाश करते हैं। २. (अध) = अब हे (मघवन् इन्द्र) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! शत्रु-विद्रावक प्रभो! आप (स्म) = निश्चय से (न:) = हमारे होइए हम आपकी ओर झुकाववाले हों। हे (गिर्वण:) = ज्ञान की वाणियों से सम्भजनीय प्रभो! आप हमारे (तनूपा:) = शरीरों के रक्षक (अन्तमः) = अन्तिकतम मित्र (भव) = होइए।

    भावार्थ - हम ज्ञान की वाणियों की कामनाबाले होते हुए शत्रुओं का धर्षण करें। प्रभु के मित्र बनें। प्रभु हमारे रक्षक व अन्तिकतम मित्र हों। रभु की मित्रता में शत्रुओं का धर्षण करनेवाला होते हुए हम मधुर इच्छाओंवाले 'मधुच्छन्दाः' बनें। मधुच्छन्दा ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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