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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
अ॑वक्र॒क्षिणं॑ वृष॒भं य॑था॒जुरं॒ गां न च॑र्षणी॒सह॑म्। वि॒द्वेष॑णं सं॒वन॑नोऽभयंक॒रं मंहि॑ष्ठमुभया॒विन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व॒ऽक्र॒क्षिण॑म् । वृ॒ष॒भम् । य॒था॒ । अ॒जुर॑म् । गाम् । न । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् ॥ वि॒ऽद्वेष॑णम् । स॒म्ऽवन॑ना । उ॒भ॒य॒म्ऽका॒रम् । मंहि॑ष्ठम् । उ॒भ॒या॒विन॑म् ॥८५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम्। विद्वेषणं संवननोऽभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥
स्वर रहित पद पाठअवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ॥ विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकारम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥८५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
विषय - 'उभयंकर-उभयावी' प्रभु
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार उस प्रभु का मिलकर स्तवन करो जोकि (अवकक्षिणम्) = शत्रुओं का अवकर्षण करनेवाले हैं। (यथा) = जैसे (वृषभम्) = शक्तिशाली है, उसी प्रकार (अजुरम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले-अहिंसित हैं। (गां न) = एक वृषभ के समान (चर्षणीसहम्) = हमारे शत्रुभूत मनुष्यों का पराभव करनेवाले हैं। प्रभु हमारे आन्तर व बाह्य दोनों प्रकार के शत्रुओं का हिंसन करते हैं। २.(विद्वेषणम्) = [विगत-द्विष] वे प्रभु हमारे जीवनों को द्वेष से शन्य बनाते हैं और (संवननम्) = सम्यक विजय प्राप्त करानेवाले हैं। (उभयंकरम्) = इहलोक के अभ्युदय व परलोक के निःश्रेयस् को प्राप्त करानेवाले हैं। (मंहिष्ठम्) = वे प्रभु दातृतम हैं-सर्वोपरि दाता है। हमारे लिए सब आवश्यक वस्तुओं को देनेवाले हैं। (उभयाविनम्) -= शरीर में शक्ति व मस्तिष्क में ज्ञान' दोनों को वे देनेवाले हैं। प्रभु सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् होते हुए उपासकों के लिए शक्ति व ज्ञान प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ - प्रभु-स्तवन से आन्तर व बाह्य शत्रुओं का विनाश होता है-अभ्युदय व निःश्रेयस् की प्राप्ति होती है और हमारा जीवन ज्ञान व शक्ति से युक्त बनता है।
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