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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 85

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 85/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रगाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-८५

    मा चि॑द॒न्यद्वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत। इन्द्र॒मित्स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । चि॒त् । अ॒न्यत् । वि । शं॒स॒त॒ । सखा॑य । मा । रि॒ष॒ण्य॒त॒ ॥ इन्द्र॑म् । इत् । स्तो॒त॒ । वृष॑णम् । सचा॑ । सु॒ते । मुहु॑: । उ॒क्था । च॒ । शं॒स॒त॒ ॥८५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत। इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखाय । मा । रिषण्यत ॥ इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सचा । सुते । मुहु: । उक्था । च । शंसत ॥८५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 85; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. प्रगाथ अपने मित्रों से कहता है कि (सखायः) = हे मित्रो! (अन्यत्) = प्रभु से भिन्न किसी अन्य का (मा चिद् विशंसत) = मत ही शंसन व स्तवन करो। सदा प्रभु का स्मरण करते हुए तुम (मा रिषण्यत) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं से हिंसित न होओ। २. हे मित्रो! (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में (सवा) = साथ मिलकर (वृषणम्) = उस शक्तिशाली (इन्द्रम् इत्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु को ही (स्तोत) = स्तुत करो (च) = और (मुहुः) = बारम्बार (उक्था) = ऊँचे से गाने योग्य स्तोत्रों का शंसत-शंसत करो। यह प्रभु-स्तवन ही तुम्हें सबल बनाएगा और तुम वासनाओं व रोगों से हिंसित न होओगे।

    भावार्थ - प्रभु का शंसन हमें 'काम, क्रोध' के आक्रमण से बचाता है, इसप्रकार यह शंसन हमें हिंसित नहीं होने देता।

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