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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
यच्चि॒द्धि त्वा॒ जना॑ इ॒मे नाना॒ हव॑न्त ऊ॒तये॑। अ॒स्माकं॒ ब्रह्मे॒दमि॑न्द्र भूतु॒ तेऽहा॒ विश्वा॑ च॒ वर्ध॑नम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । चि॒त् । हि । त्वा॒ । जना॑: । इ॒मे । नाना॑ । हव॑न्ते । ऊ॒तये॑ ॥ अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । इ॒दम् । इ॒न्द्र॒ । भू॒तु॒ । ते॒ । अहा॑ । विश्वा॑ । च॒ । वर्ध॑नम् ॥८५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये। अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । चित् । हि । त्वा । जना: । इमे । नाना । हवन्ते । ऊतये ॥ अस्माकम् । ब्रह्म । इदम् । इन्द्र । भूतु । ते । अहा । विश्वा । च । वर्धनम् ॥८५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 85; मन्त्र » 3
विषय - ज्ञानीभक्त, न कि आर्तभक्त
पदार्थ -
१. (यत्) = जो (चित् हि) = निश्चय से (इमे) = ये (नाना जना:) = विविध वृत्तियोंवाले लोग हैं, वे सब (ऊतये) = अपने रक्षण के लिए (त्वा हवन्ते) = आपको पुकारते हैं। पीड़ा के आने पर सब प्रभु को याद करते ही हैं, परन्तु पीड़ा के दूर होने पर प्रभु के ये आर्तभक्त प्रभु को भूल भी जाते हैं, २. परन्तु हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (अस्माकम् इदं ब्रह्म) = हमसे किया गया यह स्तवन (ते) = आपके लिए (विश्वा च अहा) = सब दिनों में (वर्धनम्) = यश का वर्धन करनेवाला (भूतु) = हो। हम आपके ज्ञानीभक्त बनें और सब कार्यों को आपके स्मरण के साथ ही करें। इसप्रकार हमारे सब कर्म पवित्र हों और हमारा जीवन बड़ा यशस्वी बने।
भावार्थ - हम केवल पीड़ा के आने पर ही प्रभु के भक्त न बनें। प्रभु के ज्ञानीभक्त बनकर हम सदा प्रभु का स्मरण करनेवाले हों। यह प्रभु का सतत स्मरण ही हमारे जीवनों को यशस्वी बनाएगा।
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