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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
त्रिक॑द्रुकेषु महि॒षो यवा॑शिरं तुवि॒शुष्म॑स्तृ॒पत्सोम॑मपिब॒द्विष्णु॑ना सु॒तं य॒थाव॑शत्। स ईं॑ ममाद॒ महि॒ कर्म॒ कर्त॑वे म॒हामु॒रुं सैनं॑ सश्चद्दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिऽक॑द्रुकेषु । म॒हि॒ष: । यव॑ऽआशिरम् । तु॒वि॒ऽशुष्म॑: । तृ॒षत् । सोम॑म् । अ॒पि॒ब॒त् । विष्णु॑ना । सु॒तम् । यथा॑ । अव॑शत् ॥ स: । ई॒म् । म॒मा॒द॒ । महि॑ । कर्म॑ । कर्त॑वे । म॒हाम् । उ॒रुम् । स: । ए॒न॒म् । स॒श्च॒त् । दे॒व: । दे॒वम् । स॒त्यम् । इन्द्र॑म् । स॒त्य: । इन्दु॑: ॥९५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिकद्रुकेषु महिषो यवाशिरं तुविशुष्मस्तृपत्सोममपिबद्विष्णुना सुतं यथावशत्। स ईं ममाद महि कर्म कर्तवे महामुरुं सैनं सश्चद्देवो देवं सत्यमिन्द्रं सत्य इन्दुः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽकद्रुकेषु । महिष: । यवऽआशिरम् । तुविऽशुष्म: । तृषत् । सोमम् । अपिबत् । विष्णुना । सुतम् । यथा । अवशत् ॥ स: । ईम् । ममाद । महि । कर्म । कर्तवे । महाम् । उरुम् । स: । एनम् । सश्चत् । देव: । देवम् । सत्यम् । इन्द्रम् । सत्य: । इन्दु: ॥९५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
विषय - 'देव, सत्य व इन्दु' बनना
पदार्थ -
१. (त्रिकद्रुकेषु) = [कदि आहाने] जीवन के तीनों आह्वानकालों में-बाल्य, यौवन व वार्धक्य में (महिष:) = प्रभु की पूजा करनेवाला और अतएव (तुविशुष्मः) = महान् बलवाला मन्त्र का ऋषि गृत्समद (विष्णुना) = परमात्मा के द्वारा सुतम् उत्पन्न किये गये यवाशिरम् [यौति आभृणाति] अशुभों को दूर करनेवाले, शुभों को हमारे साथ सम्पृक्त करनेवाले और सब रोगकृमियों व वासनाओं को शीर्ण करनेवाले (सोमम्) = सोम को (तृपत्) = तृप्ति का अनुभव करता हुआ (अपिबत्) = अपने अन्दर ही पीता है, अर्थात् शरीर में ही इसे व्यास करता है। उतना-उतना व्याप्त करता है (यथा अवशत्) = जितना-जितना इन्द्रियों को वश में करता है। २. इसप्रकार सदा प्रभु का स्मरण करता हुआ और इन्द्रियों को वश में करता हुआ गृत्समद सोम का पान करता है-वीर्य को शरीर में ही सुरक्षित करता है। (स:) = वह (ईम्) = निश्चय से (ममाद) = प्रसन्नता का अनुभव करता है। (महि कर्म कर्तवे) = महान् कर्म करने के लिए होता है और (एनम्) = इस (महाम्) = महान्-पूजनीय (उरुम्) = सर्वव्यापक प्रभु को (सश्चत्) = प्राप्त होता है। (देव:) = प्रकाशमय जीवनवाला बनकर (देवम्) = प्रकाशमय प्रभु को प्राप्त करता है। (सत्यः) = सत्यवादी व (इन्दुः) = शक्तिशाली बनकर (सत्यम्) = सत्यस्वरूप (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को पाता है।
भावार्थ - उपासक उपासना की वृत्ति के परिणामस्वरूप वासनाओं से आक्रान्त न होकर सोम का रक्षण कर पाता है। इस सोम-रक्षण से उल्लासमय जीवनवाला-महान् कर्मों को करनेवाला तथा 'देव, सत्य व इन्द्र' बनकर उस महान् 'देव, सत्य व इन्दु' को प्राप्त करता है।
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