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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 95

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 95/ मन्त्र 4
    सूक्त - सुदाः पैजवनः देवता - इन्द्रः छन्दः - शक्वरी सूक्तम् - सूक्त-९५

    वि षु विश्वा॒ अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त नो॒ धियः॑। अस्ता॑सि॒ शत्र॑वे व॒धं यो न॑ इन्द्र॒ जिघां॑सति॒ या ते॑ रा॒तिर्द॒दिर्वसु॑। नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वा॑: । अरा॑तय: । अ॒र्य: । न॒श॒न्त॒ । न॒: । धिय॑: ॥ अस्ता॑ । अ॒सि॒ । शत्र॑वे । व॒धम् । य: । न॒: । इ॒न्द्र॒ । जिघां॑सति । या । ते॒ । रा॒ति: । द॒दि: । वसु॑ । नम॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒का: । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥९५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि षु विश्वा अरातयोऽर्यो नशन्त नो धियः। अस्तासि शत्रवे वधं यो न इन्द्र जिघांसति या ते रातिर्ददिर्वसु। नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वा: । अरातय: । अर्य: । नशन्त । न: । धिय: ॥ अस्ता । असि । शत्रवे । वधम् । य: । न: । इन्द्र । जिघांसति । या । ते । राति: । ददि: । वसु । नमन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याका: । अधि । धन्वऽसु ॥९५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 95; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १.(विश्वा:) = सब (अरातयः) = न देने की वृत्तिवाले-कृपण (अर्य:) = शत्रु (सु) = अच्छी प्रकार (विनशन्त) = विनष्ट हो जाएँ। (नः) = हमें (धियः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्म (नशन्त) = प्राप्त हों। शत्रुभय के न होने पर हम सब कार्यों को स्वस्थ मस्कि से करनेवाले हों। २. हे (इन्द्र) = सेनापते! (यः) = जो (न:) = हमें (जिघांसति) = मारना चाहता है, उस (शत्रवे) = शत्रु के लिए तू (वधम्) = वन को (अस्तासि) = फेंकनेवाला है और समय-समय पर (या) = जो (ते) = तेरी (राति:) = दानशीलता है, उसे भी तू शत्रु के लिए फेंकनेवाला होता है, अर्थात् धन देकर भी तु शत्रुओं पर विजय पाने का प्रयत्न करता है। कई बार जो कार्य तोपों के गोलों की मार से नहीं होता, वह सोने के एक भार से हो जाता है, इसलिए आवश्यकता होने पर तु (वसददि:) = धन देनेवाला होता है। इसप्रकार (अन्यकेषां ज्याका:) = शत्रुओं के धनुषर्षों की डोरियों (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = नष्ट हो जाएँ।

    भावार्थ - शत्र भय के अभावों में हमारे सब कार्य बुद्धिपूर्वक हों। सेनापति शस्त्रों से व धनों से शत्रुविजय के लिए यत्नशील हो। शत्रभयरहित राष्ट्र के शान्त वातावरण में बुद्धिपूर्वक कार्यों को करता हुआ यह व्यक्ति अपनी न्यूनताओं को दूर करता है और अपना पुरण करता है, अत: 'पूरणः' नामवाला हो जाता है। यही अगले सूक्त के प्रथम पाँच मन्त्रों का ऋषि है। 'पूरण' का साधन सोम-रक्षण ही है -

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