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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
    सूक्त - पूरणः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९६

    ती॒व्रस्या॒भिव॑यसो अ॒स्य पा॑हि सर्वर॒था वि हरी॑ इ॒ह मु॑ञ्च। इन्द्र॒ मा त्वा॒ यज॑मानासो अ॒न्ये नि री॑रम॒न्तुभ्य॑मि॒मे सु॒तासः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ती॒व्रस्य॑ । ‍अ॒भिऽव॑यस: । अ॒स्य । पा॒हि॒ । स॒र्व॒ऽर॒था । वि । हरी॒ इति॑ । इ॒ह । मु॒ञ्च॒ ॥ इन्द्र॑ । मा । त्वा॒ । यज॑मानास: । अ॒न्ये । नि । रि॒र॒म॒न्‌ । तुभ्य॑म् । इ॒मे । सु॒तास॑: ॥९६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तीव्रस्याभिवयसो अस्य पाहि सर्वरथा वि हरी इह मुञ्च। इन्द्र मा त्वा यजमानासो अन्ये नि रीरमन्तुभ्यमिमे सुतासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तीव्रस्य । ‍अभिऽवयस: । अस्य । पाहि । सर्वऽरथा । वि । हरी इति । इह । मुञ्च ॥ इन्द्र । मा । त्वा । यजमानास: । अन्ये । नि । रिरमन्‌ । तुभ्यम् । इमे । सुतास: ॥९६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (तीवस्य) = शत्रुओं के लिए तीन रोगकृमिरूप शत्रुओं को तीव्रता से विनष्ट करनेवाले (अभिवयसः) = [अभिगतं वयो येन], जिसके द्वारा उत्कृष्ट जीवनवाला होता है, (अस्य) = [सोमस्य] इस सोम का (पाहि) = तू अपने में रक्षण कर। सोम को तू शरीर में ही सुरक्षित रख। यह तुझे रोगों से मुक्त करेगा और दीर्घजीवन प्राप्त कराएगा। २. (इह) = इस जीवन में सर्वरथाः [सर्व: रथः याभ्याम्]-जिनके द्वारा यह शरीर-रथ पूर्ण बनता है, उन (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (विमुञ्च) = विषय-वासनारूप घास के चरते रहने से पृथक् कर। तेरी इन्द्रियाँ विषयों में ही लित न रह जाएँ-इन्हें तू विषयमुक्त करके शरीर-रथ को आगे ले-चलनेवाला बन। ३. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (त्वा) = तुझे (अन्ये यजमानास:) = अन्य विविध कामनाओं से यज्ञों में व्याप्त लोग (मा निरीरमन्) = मत आनन्दित करें, अर्थात् तू भी उनकी तरह सकाम होकर इन यज्ञ-याग आदि में ही न उलझा रह जाए। (तुम्यम्) = तेरे लिए तो (इमे) = ये सोम (सुतास:) = उत्पन्न किये गये हैं। तेरा मुख्य कार्य इनका रक्षण है। इनके रक्षण से ही सब प्रकार की उन्नति होगी।

    भावार्थ - हम इन्द्रियों को विषयों से मुक्त करके, सोम-रक्षण को ही अपना मुख्य कर्तव्य समझें।

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