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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 21
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यक्ष्मनाशनम् छन्दः - उपरिष्टाद्विराड्बृहती सूक्तम् - सूक्त-९६

    ऊ॒रुभ्यां॑ ते अष्ठी॒वद्भ्यां॒ पार्ष्णि॑भ्यां॒ प्रप॑दाभ्याम्। यक्ष्मं॑ भस॒द्यं श्रोणि॑भ्यां॒ भास॑दं॒ भंस॑सो॒ वि वृ॑हामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒रुऽभ्या॑म् । ते॒ । अ॒ष्ठी॒वत्ऽभ्या॑म् । पार्ष्णि॑ऽभ्याम् । प्रऽप॑दाभ्याम् ॥ यक्ष्म॑म् । भ॒स॒द्य॑म् । श्रोणि॑ऽभ्याम् । भास॑दम् । भंस॑स: । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥९६.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊरुभ्यां ते अष्ठीवद्भ्यां पार्ष्णिभ्यां प्रपदाभ्याम्। यक्ष्मं भसद्यं श्रोणिभ्यां भासदं भंससो वि वृहामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊरुऽभ्याम् । ते । अष्ठीवत्ऽभ्याम् । पार्ष्णिऽभ्याम् । प्रऽपदाभ्याम् ॥ यक्ष्मम् । भसद्यम् । श्रोणिऽभ्याम् । भासदम् । भंसस: । वि । वृहामि । ते ॥९६.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    १. हे रोगात ! (ते) = तेरी (ऊरुभ्याम्) = जाँघों से (अष्ठीवद्भ्याम्) = घुटनों से (पाकॊिभ्याम्) = पाँवों के अधरभाग, अर्थात् एड़ियों से और (प्रपदाभ्याम्) = पाँवों के अग्नभाग से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवृहामि) = पृथक् करता हूँ। २. (भसद्यम्) = कटिभाग में होनेवाले रोग को दूर करता हूँ। (श्रोणिभ्याम्) = कटि के अधरभाग से रोग को दूर करता हूँ। इसीप्रकार (ते) = तेरे (भासदम्) = गुह्यप्रदेश में होनेवाले रोग को (भंसस:) = [भस दीसौ] भासमान गुह्यस्थान से पृथक् करता हूँ।

    भावार्थ - जाँघों आदि प्रदेशों में होनेवाले रोगों को नष्ट किया जाए।

    सूचना - 'भंससः' शब्द गुह्यप्रदेश की शुद्धता पर बल दे रहा है। इन प्रदेशों को शुद्ध रखना नितान्त आवश्यक है।

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