अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 12
सूक्त - रक्षोहाः
देवता - गर्भसंस्रावप्रायश्चित्तम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
यस्ते॒ गर्भ॒ममी॑वा दु॒र्णामा॒ योनि॑मा॒शये॑। अ॒ग्निष्टं ब्रह्म॑णा स॒ह निष्क्र॒व्याद॑मनीनशत् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । गर्भ॑म् । अमी॑वा । दु॒:ऽनामा॑ । योनि॑म् । आ॒ऽशये॑ ॥ अ॒ग्नि: । तम् । ब्रह्म॑णा । स॒ह । नि: । क्र॒व्य॒ऽअद॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ॥९६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते गर्भममीवा दुर्णामा योनिमाशये। अग्निष्टं ब्रह्मणा सह निष्क्रव्यादमनीनशत् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । गर्भम् । अमीवा । दु:ऽनामा । योनिम् । आऽशये ॥ अग्नि: । तम् । ब्रह्मणा । सह । नि: । क्रव्यऽअदम् । अनीनशत् ॥९६.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 12
विषय - क्रव्याद [क्रिमि] संहार
पदार्थ -
१. (य:) = जो अमीवा रोग (ते) = तेरे (गर्भम्) = गर्भस्थान में (आशये) = निवास करता है और जो (दुर्णामा) = अशुभ नामबाला अर्शस् नामक रोग (योनिम्) = रेतस् के आधान स्थान में निवास करता है, (तम्) = उसको (अग्नि:) = यह कुशल, ज्ञानी वैद्य (नि: अनीनशत्) = बाहर करके नष्ट कर दे। २. यह ज्ञानी वैद्य (ब्रह्मणा सह) = ज्ञान के साथ, अर्थात् रोग को अच्छी प्रकार समझकर नष्ट करनेवाला हो। (क्रव्यादम्) = इस मांस खानेवाले [मांसानि शनम् सा०] क्रिमि को यह वैद्य नष्ट कर दे। इन क्रव्याद क्रिमियों के नाश से ही रोग का उन्मूलन होता है।
भावार्थ - ज्ञानी वैद्य मांस को खा जानेवाले क्रिमियों को नष्ट करके गर्भगत व योनिगत विकारों को नष्ट करता है।
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