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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 5
    सूक्त - पूरणः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९६

    अ॑श्वा॒यन्तो॑ ग॒व्यन्तो॑ वा॒जय॑न्तो॒ हवा॑महे॒ त्वोप॑गन्त॒वा उ॑। आ॒भूष॑न्तस्ते सुम॒तौ नवा॑यां व॒यमि॑न्द्र त्वा शु॒नं हु॑वेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒ऽयन्त॑: । ग॒व्यन्त॑: । वा॒जय॑न्त: । हवा॑महे । त्वा॒ । उप॑ऽग॒न्‍त॒वै । ऊं॒ इति॑ ॥ आ॒ऽभूष॑न्त: । ते॒ । सु॒ऽम॒तौ । नवा॑याम् । व॒यम् । इ॒न्द्र॒ । त्वा॒ । शु॒नम् । हु॒वे॒म॒॥९६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वायन्तो गव्यन्तो वाजयन्तो हवामहे त्वोपगन्तवा उ। आभूषन्तस्ते सुमतौ नवायां वयमिन्द्र त्वा शुनं हुवेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वऽयन्त: । गव्यन्त: । वाजयन्त: । हवामहे । त्वा । उपऽगन्‍तवै । ऊं इति ॥ आऽभूषन्त: । ते । सुऽमतौ । नवायाम् । वयम् । इन्द्र । त्वा । शुनम् । हुवेम॥९६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. (अश्वायन्त:) = उत्तम कर्मेन्द्रियों की कामना करते हुए, (गव्यन्तः) = ज्ञानेन्द्रियों को प्रशस्त बनाते हुए, (वाजयन्त:) = शक्ति की कामना करते हुए हम (उपगन्तवा उ) = हे प्रभो! आपके समीप प्राप्त होने के लिए (त्वा हवामहे) = आपको पुकारते हैं। प्रभु की आराधना से ही हम जीवन में विलास से बचकर उत्तम ज्ञानेन्द्रियों, उत्तम कर्मेन्द्रियों व शक्ति को प्राप्त करते हैं। २. हे प्रभो ! इसप्रकार ते आपकी (नवायाम्) = अतिशयेन (स्तुत्य सुमती) = कल्याणी मति में (आभूषन्तः) = सदा वर्तमान होते हुए (वयम्) = हम, हे इन्द्र-सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (शुनम्) = आनन्दस्वरूप (त्वा) = आपको हुवेम-पुकारते हैं। आपकी आराधना ही तो हमें कल्याणी मति प्राप्त कराएगी।

    भावार्थ - उत्तम ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों व शक्ति का सम्पादन करते हुए हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु का उपासन हमें शुभ बुद्धि को प्राप्त कराता है। यह उत्तम बुद्धिवाला तपस्वी जीवन को, नकि विलासी जीवन को बिताता हुआ पूर्ण नीरोग बनता है। सब रोगों को नष्ट करता हुआ 'यक्ष्मनाशनम्' होता है।

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