अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 18
ग्री॒वाभ्य॑स्त उ॒ष्णिहा॑भ्यः॒ कीक॑साभ्यो अनू॒क्यात्। यक्ष्मं॑ दोष॒ण्यमंसा॑भ्यां बा॒हुभ्यां॒ वि वृ॑हामि ते ॥
स्वर सहित पद पाठग्री॒वाभ्य॑: । ते॒ । उ॒ष्णिहा॑भ्य: । कीक॑साभ्य: । अ॒नू॒क्या॑त् ॥ यक्ष्म॑म् । दो॒ष॒ण्य॑म् । अंसा॑भ्याम् । बा॒हुऽभ्या॑म् । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥९६.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनूक्यात्। यक्ष्मं दोषण्यमंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठग्रीवाभ्य: । ते । उष्णिहाभ्य: । कीकसाभ्य: । अनूक्यात् ॥ यक्ष्मम् । दोषण्यम् । अंसाभ्याम् । बाहुऽभ्याम् । वि । वृहामि । ते ॥९६.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 18
विषय - दोषण्य दोष का निराकरण
पदार्थ -
१. हे व्याधिगृहीत पुरुष! मैं (ते) = तेरी (ग्रीवाभ्यः) = गले में विद्यमान नाड़ियों से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवृहामि) = दूर करता हूँ। (उष्णिहाभ्य:) = ऊपर की ओर जानेवाली धमनियों से (कीक साभ्यः) = अस्थियों से (अनूक्यात्) = अस्थिसंधियों से भी रोग को दूर करता हूँ। २. (दोषण्यम्) = भुजाओं में होनेवाले रोग को दूर करता हूँ और (अंसाभ्याम्) = कन्धों से तथा (बाहुभ्याम्) = भुजाओं के अधोभागरूप हाथों से (ते) = तेरे रोग को दूर करता हूँ।
भावार्थ - ज्ञानी वैद्य भुजाओं के सब रोगों को दूर कर देता है।
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