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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 20
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यक्ष्मनाशनम् छन्दः - चतुष्पदा भुरिगुष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-९६

    अ॒न्त्रेभ्य॑स्ते॒ गुदा॑भ्यो वनि॒ष्ठोरु॒दरा॒दधि॑। यक्ष्मं॑ कु॒क्षिभ्यां॑ प्ला॒शेर्नाभ्या॒ वि वृ॑हामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒न्त्रेभ्य॑: । ते॒ । गुदा॑भ्य: । व॒नि॒ष्ठो: । उ॒दरा॑त् । अधि॑ ॥ यक्ष्म॑म् । कु॒क्षिऽभ्या॑म् । प्ला॒शे: । नाभ्या॑: । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥९६.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठोरुदरादधि। यक्ष्मं कुक्षिभ्यां प्लाशेर्नाभ्या वि वृहामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आन्त्रेभ्य: । ते । गुदाभ्य: । वनिष्ठो: । उदरात् । अधि ॥ यक्ष्मम् । कुक्षिऽभ्याम् । प्लाशे: । नाभ्या: । वि । वृहामि । ते ॥९६.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    १. (ते) = तेरी (आन्त्रेभ्य:) = आँतों से (गुदाभ्यः) = गुदा से-मलमूत्रप्रवहण मार्गों से (वनिष्ठो:) = स्थविरान्तों से [मलस्थान से-मलाधिष्ठान से] (उदरात् अधि) = सर्वाधारभूत जठर से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवृहामि) = पृथक् करता हूँ। २. (कुक्षिभ्याम्) = दक्षिण व उत्तर उदरभागों से [दाएँ-बाएँ पासे से] (प्लाशै:) = बहुछिद्र मलपात्र से [अन्दर की थैली से] और (नाभ्या) = नाभि से (ते) = तेरे रोग को निकाल फेंकता हूँ।

    भावार्थ - आन्त्र आदि प्रदेशों से रोग-बीजों को दूर किया जाए।

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