अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 15
सूक्त - रक्षोहाः
देवता - गर्भसंस्रावप्रायश्चित्तम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
यस्त्वा॒ भ्राता॒ पति॑र्भू॒त्वा जा॒रो भू॒त्वा नि॒पद्य॑ते। प्र॒जां यस्ते॒ जिघां॑सति॒ तमि॒तो ना॑शयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । त्वा॒ । भ्राता॑ । पति॑: । भू॒त्वा । जा॒र: । भू॒त्वा । नि॒पद्य॑ते ॥ प्र॒ऽजाम् । य: । ते॒ । जिघां॑सति । तम् । इ॒त: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥९६.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त्वा भ्राता पतिर्भूत्वा जारो भूत्वा निपद्यते। प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । त्वा । भ्राता । पति: । भूत्वा । जार: । भूत्वा । निपद्यते ॥ प्रऽजाम् । य: । ते । जिघांसति । तम् । इत: । नाशयामसि ॥९६.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 15
विषय - बालक की गर्भ-स्थिति में संयम का महत्त्व
पदार्थ -
१. हे नारि! (यः) = जो (भ्राता) = भरण करनेवाल (पति: भूत्वा) = पति बनकर (त्वा) = गर्भस्थ बालकवाली तुझे (निपद्यते) = भोग के लिए प्राप्त होता है अथवा (जार:) = तेरी शक्तियों को जीर्ण करनेवाला (भूत्वा) = होकर तुझे प्राप्त होता है और इसप्रकार (यः) = जो (ते) = तेरी (प्रजाम्) = गर्भस्थ सन्तति को (जिघांसति) = मारने की कामनावाला होता है, (तम्) = उसको हम (इत:) = यहाँ से (नाशायामसि) = दूर करते हैं, अर्थात् ऐसी व्यवस्था करते हैं कि तुझ गर्मिणि के साथ भोगवृत्ति से कोई भी बर्ताव करनेवाला न हो। २. गर्भिणि स्त्री के पति का यह कर्तव्य है कि बच्चे के गर्भस्थ होने के समय वह 'भ्राता' ही बना रहे। उस समय भोग द्वारा स्त्री की शक्तियों को जीर्ण करनेवाला 'जार' न बने।
भावार्थ - बालक के गर्भस्थ होने पर पति 'भ्राता' के समान वर्ते। उस समय पति के रूप में वर्तना 'जारवृत्ति' है।
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