अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
तुभ्यं॑ सु॒तास्तुभ्य॑मु॒ सोत्वा॑स॒स्त्वां गिरः॒ श्वात्र्या॒ आ ह्व॑यन्ति। इन्द्रे॒दम॒द्य सव॑नं जुषा॒णो विश्व॑स्य वि॒द्वाँ इ॒ह पा॑हि॒ सोम॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । सु॒ता: । तुभ्य॑म् । ऊं॒ इति॑ । सोत्वा॑स: । त्वाम् । गिर॑: । श्वात्र्या॑: । आ । ह्व॒य॒न्ति॒ ॥ इन्द्र॑ । इ॒दम् । अ॒द्य । सव॑नम् । जु॒षा॒ण: । विश्व॑स्य । वि॒द्वान् । इ॒ह । पा॒हि॒ । सोम॑म् ॥९६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यं सुतास्तुभ्यमु सोत्वासस्त्वां गिरः श्वात्र्या आ ह्वयन्ति। इन्द्रेदमद्य सवनं जुषाणो विश्वस्य विद्वाँ इह पाहि सोमम् ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम् । सुता: । तुभ्यम् । ऊं इति । सोत्वास: । त्वाम् । गिर: । श्वात्र्या: । आ । ह्वयन्ति ॥ इन्द्र । इदम् । अद्य । सवनम् । जुषाण: । विश्वस्य । विद्वान् । इह । पाहि । सोमम् ॥९६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 2
विषय - वेदवाणियों की पुकार
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (तुम्यं सुता:) = तेरे लिए इन सोमों का उत्पादन हुआ है, (उ) = और (तुभ्यम्) = तेरे लिए ही (सोत्वास:) = उत्पन्न किये जाएंगे। ये (श्वात्र्याः) = [शु अतन्ति]-शीघ्रता से गतिवाली, अर्थात् कर्मों में प्रेरित करनेवाली (गिर:) = वेदवाणियाँ (त्वाम् आह्वयन्ति) = तुझे पुकारती है। तूने इनका अध्ययन करना है और इनमें निर्दिष्ट कर्मों में प्रवृत्त होना है। २. हे जितेन्द्रिय पुरुष! (अद्य) = आज (इदं सवनम्) = इस जीवन-यज्ञ को (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ (विश्वस्य विद्वान) = अपने सब कर्त्तव्यकर्मों को जानता हुआ (सोमम्) = सोम [वीर्य] को (इह) = इस शरीर में (पाहि) = सुरक्षित कर । इस सोम-रक्षण से ही तू सब कर्त्तव्यकों को पूर्ण कर पाएगा। सोम-रक्षण ही तुझे तीव्र बुद्धि बनाकर वेद [ज्ञान] को समझने के योग्य बनाएगा।
भावार्थ - हम सोम का रक्षण करें। वेदवाणी को पढ़ें । वेदवाणी को समझते हुए हम तदुपदिष्ट कर्तव्यकर्मों का पालन करें।
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