अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 10
सूक्त - पूरणः
देवता - इन्द्राग्नी, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
आहा॑र्ष॒मवि॑दं त्वा॒ पुन॒रागाः॒ पुन॑र्णवः। सर्वा॑ङ्ग॒ सर्वं॑ ते॒ चक्षुः॒ सर्व॒मायु॑श्च तेऽविदम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । आ॒हा॒र्ष॒म् । अवि॑दम् । त्वा॒ । पुन॑: । आ । अ॒गा॒: । पुन॑:ऽनव: ॥ सर्व॑ऽअङ्ग । सर्व॑म् । ते॒ । चक्षु॑: । सर्व॑ । आयु॑: । च॒ । ते॒ । अ॒वि॒द॒म् ॥९६.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
आहार्षमविदं त्वा पुनरागाः पुनर्णवः। सर्वाङ्ग सर्वं ते चक्षुः सर्वमायुश्च तेऽविदम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । आहार्षम् । अविदम् । त्वा । पुन: । आ । अगा: । पुन:ऽनव: ॥ सर्वऽअङ्ग । सर्वम् । ते । चक्षु: । सर्व । आयु: । च । ते । अविदम् ॥९६.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 10
विषय - सर्वाङ्ग
पदार्थ -
१. रोगी को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि (त्वा आहार्षम्) = तुझे रोग से बाहर ले-आता हूँ और इसप्रकार (त्वा अविदम्) = तुझे प्राप्त करता हूँ। (पुन: आगा:) = तू फिर से हमें प्राप्त हो। (पुनः नव:) = फिर से नवजीवन प्राप्त करनेवाला बन । २. हे (सर्वाङ्ग) = सम्पूर्ण अंगोंवाले पुरुष! (ते) = तेरे लिए (सर्व चक्षुः) = पूर्ण स्वस्थ दृष्टि, (च) = और (ते) = तेरे लिए (सर्वम् आयु:) = पूर्ण जीवन (अविदम्) = मैंने प्राप्त कराया है।
भावार्थ - हम नीरोग होकर ठीक दृष्टि को व स्वस्थ अधिकृत अंगों को प्राप्त करते हुए पूर्ण जीवन प्राप्त करें। अग्निहोत्र के द्वारा रोगकृमियों का विनाश होकर हमें नीरोगता प्राप्त होती है। ये रोगकृमि अपने रमण के लिए हमारा क्षय करते हैं, अत: 'रक्षस्' कहलाते हैं। इनको नष्ट करनेवाला 'रक्षोहा' अगले छह मन्त्रों का ऋषि है -
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