अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
य उ॑श॒ता मन॑सा॒ सोम॑मस्मै सर्वहृ॒दा दे॒वका॑मः सु॒नोति॑। न गा इन्द्र॒स्तस्य॒ परा॑ ददाति प्रश॒स्तमिच्चारु॑मस्मै कृणोति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । उ॒श॒ता । मन॑सा । सोम॑म् । अ॒स्मै॒ । स॒र्व॒ऽहृ॒दा । दे॒वका॑म: । सु॒नोति॑ ॥ न । गा: । इन्द्र॑: । तस्य॑ । परा॑ । द॒दा॒ति॒ । प्र॒ऽश॒स्तम् । इत् । चारु॑म् । अ॒स्मै॒ । कृ॒णो॒ति॒ ॥९६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
य उशता मनसा सोममस्मै सर्वहृदा देवकामः सुनोति। न गा इन्द्रस्तस्य परा ददाति प्रशस्तमिच्चारुमस्मै कृणोति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । उशता । मनसा । सोमम् । अस्मै । सर्वऽहृदा । देवकाम: । सुनोति ॥ न । गा: । इन्द्र: । तस्य । परा । ददाति । प्रऽशस्तम् । इत् । चारुम् । अस्मै । कृणोति ॥९६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
विषय - 'प्रशस्त चारु' जीवन
पदार्थ -
१. (यः) = जो (उशता मनसा) = कामयमान मन से-चाहते हुए मन से (सर्वहृदा) = पूरे दिल से (देवकाम:) = उस महान् देव प्रभु की कामनावाला होता हुआ (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (सोमं सुनोति) = अपने में सोम को उत्पन्न करता है। (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (तस्य) = उसकी (गा:) = इन्द्रियरूप गौओं को (न पराददाति) = कभी उससे दूर नहीं करता। इन्हें विषयों का नहीं होने देता। एवं, सोम-रक्षण का प्रथम परिणाम यही होता है कि मनुष्य प्रभु-प्रवण बनता है-उसकी इन्द्रियों विषयों से व्यावृत्त रहकर ठीक बनी रहती है। २. इसप्रकार वे प्रभु (अस्मै) = इस सोम रक्षण करनेवाले के लिए (इत्) = निश्चय से (प्रशस्तम्) = प्रशस्त व (चारुम्) = सुन्दर जीवन को (कृणोति) = करते हैं। इसका जीवन प्रशस्त व सुन्दर बनता है।
भावार्थ - सोम-रक्षण के द्वारा हम इन्द्रियों को सशक्त बनाएँ। प्रभु-प्रवण बनकर जीवन को प्रशंसनीय व सुन्दर बना सकें।
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