अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 13
सूक्त - रक्षोहाः
देवता - गर्भसंस्रावप्रायश्चित्तम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
यस्ते॒ हन्ति॑ प॒तय॑न्तं निष॒त्स्नुं यः स॑रीसृ॒पम्। जा॒तं यस्ते॒ जिघां॑सति॒ तमि॒तो ना॑शयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । हन्ति॑ । प॒तय॑न्तम् । नि॒ऽस॒त्नुम् । य: । स॒री॒सृ॒पम् ॥ जा॒तम् । य: । ते॒ । जिघां॑सति । तम् । इ॒त: । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥ ९६.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते हन्ति पतयन्तं निषत्स्नुं यः सरीसृपम्। जातं यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । हन्ति । पतयन्तम् । निऽसत्नुम् । य: । सरीसृपम् ॥ जातम् । य: । ते । जिघांसति । तम् । इत: । नाशयामसि ॥ ९६.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 13
विषय - गर्भाधान से जातकर्म तक
पदार्थ -
१. गर्भाधान काल में (पतयन्तम्) = गर्भ में जाते हुए (ते) = तेरे वीर्यांश को (यः) = जो हन्ति नष्ट करता है, अब (निषत्स्नुम) = गर्भ में निषण्ण होते हुए जीव को जो नष्ट करता है, (यः) = जो तीन चार मास बाद (सरीसृपम्) = सर्पणशील उस गर्भस्थ बालक को नष्ट करता है, (तम्) = उस रोगकृमि को (इत:) = यहाँ से (नाशयामसि) = हम नष्ट करते हैं। २. (यः) = जो रोग (ते) = तेरे (जातम्) = उत्पन्न हुए हुए बालक को जिघांसति नष्ट करना चाहता है, उस रोग को भी हम नष्ट करते हैं।
भावार्थ - गर्भस्थ बालक के जीवन को प्रारम्भ से अन्त तक रोगों से बचाने का प्रयत्न करते हैं।
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