अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 96/ मन्त्र 8
सूक्त - पूरणः
देवता - इन्द्राग्नी, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-९६
स॑हस्रा॒क्षेण॑ श॒तवी॑र्येण श॒तायु॑षा ह॒विषाहा॑र्षमेनम्। इन्द्रो॒ यथै॑नं श॒रदो॒ नया॒त्यति॒ विश्व॑स्य दुरि॒तस्य॑ पा॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षेण॑ । श॒तऽवी॑र्येण । श॒तऽआ॑युषा । ह॒विषा॑ । आ । अ॒हा॒र्ष॒म् । ए॒न॒म् ॥ इन्द्र॑: । यथा॑ । ए॒न॒म् । श॒रद॑: । नया॑ति । अति॑ । विश्व॑स्य । दु॒:ऽइ॒तस्य॑ । पा॒रम् ॥९६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्राक्षेण शतवीर्येण शतायुषा हविषाहार्षमेनम्। इन्द्रो यथैनं शरदो नयात्यति विश्वस्य दुरितस्य पारम् ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽअक्षेण । शतऽवीर्येण । शतऽआयुषा । हविषा । आ । अहार्षम् । एनम् ॥ इन्द्र: । यथा । एनम् । शरद: । नयाति । अति । विश्वस्य । दु:ऽइतस्य । पारम् ॥९६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 96; मन्त्र » 8
विषय - सहस्त्राक्ष हवि
पदार्थ -
१. मैं (एनम्) = इस सण पुरुष को (हविषा) = हवि के द्वारा (आहार्षम्) = रोग से बाहर ले-आता हैं, उस हवि के द्वारा जोकि (सहस्त्राक्षेण) = हजारों आँखोंवाली है-हजारों पुरुषों का ध्यान करती है। हजारों को ही रोगों से मुक्त करती है। (शतशारदेन) = यह हवि हमें शतवर्षपर्यन्त ले-चलती है। (शतायुषा) = इस हवि के द्वारा हमारा शतवर्ष का आयुष्य क्रियामय बना रहता है। [एति इति आयुः] । २. मैं इसको हवि के द्वारा रोग से बाहर लाता हूँ और इसप्रकार व्यवस्था करता हूँ कि (यथा) = जिससे (इमम्) = इस पुरुष को (इन्द्रः) = सूर्य (विश्वस्य) = सब (दुरितस्य) = दुर्गतियों के (पारम्) = पार (नयाति) = ले-जाता है। अग्नि और सूर्य मिलकर मनुष्य को सब रोगों से ऊपर उठा देते हैं।
भावार्थ - अग्निहोत्र में डाले गये हविर्द्रव्यों से हजारों पुरुषों का कल्याण होता है। ये उन्हें शतवर्ष का क्रियामय जीवन प्राप्त कराते हैं।
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