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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 98

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
    सूक्त - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९८

    त्वामिद्धि हवा॑महे सा॒ता वाज॑स्य का॒रवः॑। त्वां वृ॒त्रेष्वि॑न्द्र॒ सत्प॑तिं॒ नर॑स्त्वां॒ काष्ठा॒स्वर्व॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । हि । हवा॑महे । सा॒ता । वाज॑स्य । का॒रव॑: ॥ त्वाम् । वृ॒त्रेषु॑ । इ॒न्द्र॒ । सत्ऽप॑तिम् । नर॑: । त्वाम् । काष्ठासु । अर्व॑त: ॥९८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामिद्धि हवामहे साता वाजस्य कारवः। त्वां वृत्रेष्विन्द्र सत्पतिं नरस्त्वां काष्ठास्वर्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । हि । हवामहे । साता । वाजस्य । कारव: ॥ त्वाम् । वृत्रेषु । इन्द्र । सत्ऽपतिम् । नर: । त्वाम् । काष्ठासु । अर्वत: ॥९८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 98; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (कारव:) = कुशलता से कार्यों को करनेवाले स्तोता लोग (वाजस्य सातौ) = शक्ति-प्राप्ति के निमित्त (त्वाम् इत् हि) = आपको ही (हवामहे) = पुकारते हैं। आप ही सब शक्तियों के देनेवाले हैं। २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (वृत्रेषु) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं के विनाश के निमित्त (सत्पतिम्) = सज्जनों के रक्षक (त्वाम्) = आपको पुकारते हैं तथा (अर्वतः) = अश्व-सम्बन्धिनी (काष्ठासु) = [काष्ठा-race-cower]-पलायन भूमियों में (नर:) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले मनुष्य (त्वाम्) = आपको पुकारते हैं। इन्द्रियाँ जब अपने मार्गों पर गति करती हैं तब वे प्रभु का स्मरण करते हैं, जिससे ये इन्द्रियों मार्गभ्रष्ट न हों।

    भावार्थ - प्रभु का आराधन [क] हमें शक्ति देता है [ख] वासनाओं का विनाश करता है तथा [ग] इन्द्रियों को मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है।

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