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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 98

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
    सूक्त - शंयुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९८

    स त्वं न॑श्चित्र वज्रहस्त धृष्णु॒या म॒ह स्त॑वा॒नो अ॑द्रिवः। गामश्वं॑ र॒थ्यमिन्द्र॒ सं कि॑र स॒त्रा वाजं॒ न जि॒ग्युषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । त्वम् । न॒: । चि॒त्र॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । म॒ह: । स्त॒वा॒न: । अ॒द्रि॒ऽव॒: ॥ गाम् । अश्व॑म् । र॒थ्य॑म् । इ॒न्द्र । सम् कि॒र॒ । स॒त्रा । वाज॑म् । न । जि॒ग्युषे॑ ॥९८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया मह स्तवानो अद्रिवः। गामश्वं रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । त्वम् । न: । चित्र । वज्रऽहस्त । धृष्णुऽया । मह: । स्तवान: । अद्रिऽव: ॥ गाम् । अश्वम् । रथ्यम् । इन्द्र । सम् किर । सत्रा । वाजम् । न । जिग्युषे ॥९८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 98; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (चित्र) = चयनीय-पूजनीय (वज्रहस्त) = दुष्टों को दण्ड देने के लिए हाथ में वज्र लिये हुए (अद्रिवः) = शत्रुओं से न विदीर्ण किये जानेवाले प्रभो! (स्तवान:) = स्तुति किये जाते हुए (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमारे लिए (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के हेतु से (महः) = तेजस्विता (संकिर) = दीजिए। आपसे तेजस्विता प्रास करके हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले बनें। २. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (रथ्यम्) = शरीर-रथ में उत्तमता से कार्य करनेवाली (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों व (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को [संकिर] दीजिए और हे प्रभो! (सत्रा) = सदा (जिग्युषे) = जैसे एक विजयशील पुरुष के लिए इसी प्रकार हमें (वाजम्) = शक्ति दीजिए। एक इन्द्रियों को जीतनेवाला पुरुष जैसे शक्ति-सम्पन्न बनता है, उसी प्रकार हम भी शक्ति प्राप्त करें।

    भावार्थ - स्तुति किये जाते हुए प्रभु हमारे लिए शक्ति दें। इस शक्ति के द्वारा ही तो हम शत्रुओं को जीत पाएँगे। शत्रुओं को जीतकर यह पवित्र जीवनवाला पुरुष 'मेध्य'-पूर्ण पवित्र प्रभु की और चलता है, अत: इसका नाम 'मेध्यातिथि' होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है-

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