Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
कदू॒ न्वस्याकृ॑त॒मिन्द्र॑स्यास्ति॒ पौंस्य॑म्। केनो॒ नु कं॒ श्रोम॑तेन॒ न शु॑श्रुवे ज॒नुषः॒ परि॑ वृत्र॒हा ॥
स्वर सहित पद पाठकत् । ऊं॒ इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । अकृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । अ॒स्ति॒ । पौंस्य॑म् ॥ केनो॒ इति॑ । नु । क॒म् । श्रोम॑तेन । न । शु॒श्रु॒वे॒ । ज॒नुष॑: । परि॑ । वृ॒त्र॒ऽहा ॥९७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
कदू न्वस्याकृतमिन्द्रस्यास्ति पौंस्यम्। केनो नु कं श्रोमतेन न शुश्रुवे जनुषः परि वृत्रहा ॥
स्वर रहित पद पाठकत् । ऊं इति । नु । अस्य । अकृतम् । इन्द्रस्य । अस्ति । पौंस्यम् ॥ केनो इति । नु । कम् । श्रोमतेन । न । शुश्रुवे । जनुष: । परि । वृत्रऽहा ॥९७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
विषय - 'सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य'
पदार्थ -
१. (कत् उ नु) = कौन-सा निश्चय से (पौंस्यम्) = पौरुष का काम-वृत्र आदि का विनाशरूप (कर्म अस्य इन्द्रस्य) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (अकृतमस्ति) = न किया हुआ है? अर्थात् वृत्र वध आदि सब पौरुष के काम प्रभु द्वारा ही तो किये जाते हैं । २. (केन उ नु श्रोमतेन) = और निश्चय से किस श्रवणीय पौरुष के कार्य से न (शुश्रवे) = वे प्रभु नहीं सुने जाते? (जनुष:परि) = जन्म से लेकर ही, अर्थात् जैसे ही प्रभु का हृदयों में कुछ प्रादुर्भाव होता है, तभी वे प्रभु (वृत्रहा) = वासना का विनाश करनेवाले हैं।
भावार्थ - वासना-विनाश [वृत्र-वध] आदि सब शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभु ही हैं। वे प्रभु हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होते ही सब शत्रुओं का विनाश कर देते हैं। प्रभु की उपासना के द्वारा वासना-विनाश से शान्ति को अपने साथ जोड़नेवाला 'शंयु' अगले सूक्त का ऋषि है
इस भाष्य को एडिट करें