अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
इ॒मां ख॑ना॒म्योष॑धिं वी॒रुधां॒ बल॑वत्तमाम्। यया॑ स॒पत्नीं॒ बाध॑ते॒ यया॑ संवि॒न्दते॒ पति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । ख॒ना॒मि॒ । ओष॑धिम् । वी॒रुधा॑म् । बल॑वत्ऽतमाम् । यया॑ । स॒ऽपत्नी॑म् । बाध॑ते । यया॑ । स॒म्ऽवि॒न्दते॑ । पति॑म् ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां खनाम्योषधिं वीरुधां बलवत्तमाम्। यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । खनामि । ओषधिम् । वीरुधाम् । बलवत्ऽतमाम् । यया । सऽपत्नीम् । बाधते । यया । सम्ऽविन्दते । पतिम् ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
विषय - आत्मविद्यारूप ओषधि
पदार्थ -
१. (इमाम्) = इस (ओषधिम्) = दोषों का दहन करनेवाली आत्मविद्या को (खनामि) = अत्यन्त श्रम के द्वारा आचार्य से प्रास करता हूँ। यह ओषधि (वीरुधाम्) = वीरुधा है-विशेषरूप से मेरा रोहण [विकास] करनेवाली है, (बलवत्तमाम्) = मुझे अतिशयित बल प्राप्त करानेवाली है, अथवा यह अन्य ओषधियों से बलवत्तमा है-सर्वाधिक बलवाली है। २. यह आत्मविद्या वह है (यया) = जिससे (सपत्नीम्) = इन्द्राणी की सपत्नीरूप भोगवृत्ति को (बाधते) = दूर रोका जाता है, (यया) = जिसके द्वारा (पतिं संविन्दते) = सर्वरक्षक पतिरूप प्रभु को प्राप्त किया जाता है। आत्मविद्या द्वारा भोगवृत्ति के विनष्ट होने पर हम परमात्मा को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ -
हम आचार्य से आत्मविद्या को प्राप्त करके भोगवृत्ति को अपने से दूर करें तभी हम योगवृत्ति को अपनाकर प्रभुरूप पति को प्राप्त करेंगे।
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