अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
घृ॒तेन॒ सीता॒ मधु॑ना॒ सम॑क्ता॒ विश्वै॑र्दे॒वैरनु॑मता म॒रुद्भिः॑। सा नः॑ सीते॒ पय॑सा॒भ्याव॑वृ॒त्स्वोर्ज॑स्वती घृ॒तव॒त्पिन्व॑माना ॥
स्वर सहित पद पाठघृतेन॑ । सीता॑ । मधु॑ना । सम्ऽअ॑क्ता । विश्वै॑: । दे॒वै: । अनु॑ऽमता । म॒रुत्ऽभि॑: । सा । न॒: । सी॒ते॒ । पय॑सा । अ॒भि॒ऽआव॑वृत्स्व । ऊर्ज॑स्वती । घृ॒तऽव॑त् । पिन्व॑माना ॥१७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः। सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत्पिन्वमाना ॥
स्वर रहित पद पाठघृतेन । सीता । मधुना । सम्ऽअक्ता । विश्वै: । देवै: । अनुऽमता । मरुत्ऽभि: । सा । न: । सीते । पयसा । अभिऽआववृत्स्व । ऊर्जस्वती । घृतऽवत् । पिन्वमाना ॥१७.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 17; मन्त्र » 9
विषय - 'घृतेन मधुना' सम्यक्त
पदार्थ -
१. (सीता) = यह लागलपद्धति (घृतेन) = जल से तथा (मधुना) = शहद से (समक्ता) = सम्यक् सिक्त हुई है। यह (विश्वैः देवैः) = सूर्यादि सब देवों से तथा (मरुद्भिः) = वृष्टिवाहक वायुओं से (अनुमता) = अङ्गीकृत हुई है-वे सब इसके अनुकूल हैं। २. हे (सीते) = लाङ्गलपद्धते! (सा) = वह तू (पयसा) = उदक [जल] से सींची हुई (न: अभि आववृत्स्व) = हमारे अभिमुख-अनुकूल हो। तू (ऊर्जस्वती) = बल से युक्त हो तथा (घृतवत्) = घृतयुक्त अन्न को (पिन्वमाना) = हमारे लिए सिक्त करनेवाली हो।
भावार्थ -
घृत व मधु से सिक्त हुई-हुई भूमि सूर्य-वायु आदि की अनुकूलता होने पर हमें बल व प्राणशक्ति प्राप्त कराए और घृतवत् अन्न देनेवाली हो।
विशेष -
गत सूक्त के अनुसार वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करनेवाला यह व्यक्ति भोगवृतिवाला न बनकर योगवृतिवाला बनता है-'अ-थर्वा' कहलाता है [न थर्वति चरति] डांवाडोल नहीं होता। यह अथर्वा जितेन्द्रिय है। इसकी पत्नी इन्द्राणी है। यदि अथर्वा भोगवृत्ति को अपनाये तो यह भोगवृत्ति इन्द्राणी की सपत्नी [सौत] हो जाती है। इन्द्राणी इस सपत्नी के दुःख को सहने को उद्यत नहीं। वह उसके विनाश के लिए आत्मविद्या-[योगविद्या]-रूप ओषधि को आचार्य से प्राप्त करने के लिए यत्नशील होती है। आत्मविद्या इन्द्राणी की सपत्नी का विनाश करती है।