अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - उष्णिग्गर्भापथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - वनस्पति
अ॒भि ते॑ऽधां॒ सह॑माना॒मुप॑ तेऽधां॒ सही॑यसीम्। मामनु॒ प्र ते॒ मनो॑ व॒त्सं गौरि॑व धावतु प॒था वारि॑व धावतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । ते॒ । अ॒धा॒म् । सह॑मानाम् । उप॑ । ते॒ । अ॒धा॒म् । सही॑यसीम् । माम् । अनु॑ । प्र । ते॒ । मन॑: । व॒त्सम् । गौ:ऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ । प॒था । वा:ऽइ॑व । धा॒व॒तु॒ ॥१८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि तेऽधां सहमानामुप तेऽधां सहीयसीम्। मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । ते । अधाम् । सहमानाम् । उप । ते । अधाम् । सहीयसीम् । माम् । अनु । प्र । ते । मन: । वत्सम् । गौ:ऽइव । धावतु । पथा । वा:ऽइव । धावतु ॥१८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
विषय - वत्सं गौ इव
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि मैं (ते) = तेरे लिए इस (सहमानाम्) = शत्रुओं का पराभव करनेवाली ब्रह्मविद्या [आत्मविद्या] को (अभि अधाम्) = धारण करता हूँ। इस (सहीयसीम्) = शत्रुओं का खूब ही पराभव करनेवाली ब्रह्मविद्या को (ते अप अधाम्) = तेरे समीप स्थापित करता हूँ। २. इस आत्मविद्या द्वारा शत्रुओं का पराभव होने पर (माम् अनु) = मेरे पीछे-मेरा लक्ष्य करके (ते मन:) = तेरा मन इसप्रकार (प्रधावतु) = दौड़े, (इव) = जैसेकि (वत्सं गौ:) = बछड़े का लक्ष्य करके गौ जाती है, अथवा (इव) = जैसे (पथा) - निम्नमार्ग से (वा:) = जल (धावत) = दौड़ता है। जल स्वभावत: निम्न मार्ग से जाता है, उसी प्रकार हमारा मन स्वभावतः प्रभु की ओर जानेवाला हो।
भावार्थ -
आत्मविद्या प्राप्त करके हम शत्रुओं को कुचल डालें और हमारा मन प्रभु की ओर गतिवाला हो, उसी प्रकार प्रभु की ओर गतिवाला हो, जैसे गौ बछड़े की ओर गतिवाली होती है।
विशेष -
आत्मविद्या द्वारा शत्रुओं को पराभूत करके यह व्यक्ति वशिष्ठ' बनता है, वशियों में श्रेष्ठ[वशिष्ठ] अथवा सर्वोतम निवासवाला [वस् निवासे]। यह प्रार्थना करता है कि -