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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त

    आ॒धीप॑र्णां॒ काम॑शल्या॒मिषुं॑ संक॒ल्पकु॑ल्मलाम्। तां सुसं॑नतां कृ॒त्वा कामो॑ विध्यतु त्वा हृ॒दि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒धीऽप॑र्णाम् । काम॑ऽशल्याम् । इषु॑म् । सं॒क॒ल्पऽकु॑ल्मलाम् । ताम् । सुऽसं॑नताम् । कृ॒त्वा । काम॑: । वि॒ध्य॒तु॒ । त्वा॒ । हृ॒दि ॥२५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आधीपर्णां कामशल्यामिषुं संकल्पकुल्मलाम्। तां सुसंनतां कृत्वा कामो विध्यतु त्वा हृदि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आधीऽपर्णाम् । कामऽशल्याम् । इषुम् । संकल्पऽकुल्मलाम् । ताम् । सुऽसंनताम् । कृत्वा । काम: । विध्यतु । त्वा । हृदि ॥२५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (आधीपर्णाम्) = मानस पीड़ाएँ ही जिसके पत्ते हैं, (कामशल्याम्) = अभिलाषा [रिरंसा] ही जिसका शल्य है [बाणाग्ने प्रोतं आयसं अंगम्], (संकल्पकुल्मलाम्) = भोगविषयक संकल्प ही जिसका कुल्मल है-दारु और शल्य को जोड़नेवाला द्रव्य है-ऐसा यह काम का बाण है। २. (ताम्, इषुम्) = उस काम के बाण को (सुसनताम्) = लक्ष्य की ओर ठीक झुका हुआ (कृत्वा) = करके (काम:) = यह कामदेव (त्वा) = तुझे (हृदि विध्यतु) = हृदय में विध्य करे।

    भावार्थ -

    काम का बाण अति तीक्ष्ण है। उससे विद्ध होकर पत्नी पति की ओर झुकाववाली हो।

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