अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
सूक्त - भृगुः
देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामबाण सूक्त
व्य॑स्यै मित्रावरुणौ हृ॒दश्चि॒त्तान्य॑स्यतम्। अथै॑नामक्र॒तुं कृ॒त्वा ममै॒व कृ॑णुतं॒ वशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि । अ॒स्यै॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । हृ॒द: । चि॒त्तानि॑ । अ॒स्य॒त॒म् । अथ॑ । ए॒ना॒म् । अ॒क्र॒तुम् । कृ॒त्वा । मम॑ । ए॒व । कृ॒णु॒त॒म् । वशे॑ ॥२५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यस्यै मित्रावरुणौ हृदश्चित्तान्यस्यतम्। अथैनामक्रतुं कृत्वा ममैव कृणुतं वशे ॥
स्वर रहित पद पाठवि । अस्यै । मित्रावरुणौ । हृद: । चित्तानि । अस्यतम् । अथ । एनाम् । अक्रतुम् । कृत्वा । मम । एव । कृणुतम् । वशे ॥२५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
विषय - पितृगृह-विस्मृति
पदार्थ -
१. हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व निर्द्वषता के भावो! (अस्यै) = इस स्त्री के लिए (हृदः) = हृदय से अन्त:करण से (चित्तानि) = चेतनाओं को–पितृगृह की स्मृतियों को (वि-अस्यतम्) = दूर क्षित कर दो। इसे यहाँ पतिगृह में इसप्रकार स्नेह व निषता का वातावरण प्राप्त हो कि यह पितगृह के सुखों को याद न कर पाये। २. (अथ) = अब (एनाम्) = इसे (अ-क्रतुं कृत्वा) = पितृगृह में जाने के सब प्रकार के संकल्पों से रहित करके (मम एव) = मेरे ही (वशे कृणुतम्) = वश में करो। मेरे स्नेह व निद्वेषता के भाव इसे पूर्णतया मेरे वश में कर दें।
भावार्थ -
पत्नी को पतिगृह में प्रेम व नितेषता के भाव इसप्रकार प्राप्त हों कि वह पितगह को याद ही न करे।
विशेष -
गत सूक्त के अनुसार काम का स्वरूप यह है कि यह 'उत्तुद' है। काम का बाण आधीपर्णा है। यह काम वह है जो कि प्लीहानं शोषयति । इसका 'इषु व्योषा' है। इस स्वरूप को स्मरण करता हुआ व्यक्ति उचित प्रेम रखता हुआ कामासक्त नहीं होता। सदा आत्मनिरीक्षण करनेवाला यह अथर्वा बनता है-अथ अर्वाङ् [now within]। यह प्रार्थना करता है कि -