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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 25

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगु देवता - मित्रावरुणौ, कामबाणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कामबाण सूक्त

    आजा॑मि॒ त्वाज॑न्या॒ परि॑ मा॒तुरथो॑ पि॒तुः। यथा॒ मम॒ क्रता॒वसो॒ मम॑ चि॒त्तमु॒पाय॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒जा॒मि॒ । त्वा॒ । आ॒ऽअज॑न्या । परि॑ । मा॒तु: । अथो॒ इति॑ । पि॒तु: । यथा॑ । मम॑ । क्रतौ॑ । अस॑: । मम॑ । चि॒त्तम् । उ॒प॒ऽआय॑सि ॥२५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आजामि त्वाजन्या परि मातुरथो पितुः। यथा मम क्रतावसो मम चित्तमुपायसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अजामि । त्वा । आऽअजन्या । परि । मातु: । अथो इति । पितु: । यथा । मम । क्रतौ । अस: । मम । चित्तम् । उपऽआयसि ॥२५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १.हे पत्नि! (त्वा) = तुझे (मातुः परि अथ उ पितुः) [परि] = माता व पिता के पास से (आजन्या) = प्रेम की कशा [चाबुक] के द्वारा (आ अजामि) = अपने अभिमुख प्रेरित करता है। पति पत्नी के प्रति इसप्रकार प्रेमवाला हो कि पत्नी को अपने माता-पिता के वियोग का कष्ट अनुभव न हो। २. मैं तुझे प्रेमकशा से इसप्रकार आहत करता हूँ कि (यथा) = जिससे तू (मम) = मेरे (क्रतौ अस:) = संकल्पों व कर्मों में ही निवास करनेवाली हो और (मम चित्तम) = मेरे चित्त को (उपायसि) = समीपता से प्राप्त हो। तेरा चित्त मेरे चित्त के अनुकूल हो।

    भावार्थ -

    पत्नी पति के प्रेम-व्यवहार से आकृष्ट होकर सदा पति-परायणा हो।

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