अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
सूक्त - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त
आ वा॑त वाहि भेष॒जं वि वा॑त वाहि॒ यद्रपः॑। त्वं हि वि॑श्वभेषज दे॒वानां॑ दू॒त ईय॑से ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒त॒ । वा॒हि॒ । भे॒ष॒जम् । वि । वा॒त॒ । वा॒हि॒ । यत् । रप॑: । त्वम् । हि । वि॒श्व॒ऽभे॒ष॒ज॒ । दे॒वाना॑म् । दू॒त: । ईय॑से ॥१३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः। त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वात । वाहि । भेषजम् । वि । वात । वाहि । यत् । रप: । त्वम् । हि । विश्वऽभेषज । देवानाम् । दूत: । ईयसे ॥१३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 3
विषय - दोष-निवारण
पदार्थ -
१. हे (वात) = प्राणवायो ! तू (भेषजम्) = सर्वव्याधिनिवर्तक औषध को (आवाहि) = प्राप्त करा। हे (वात) = अपान वायो! (यत् रपः) = जो पाप व दोष व्याधि का निदान [कारण] है, उसे (विवाहि) = दूर कर । २. हे वायो ! (त्वं हि) = तू ही (विश्वभेषज) = सब व्याधियों का निवर्तक है। तू (देवानाम्) = सब इन्द्रियों का (दूत:) = दूत की भाँति समीपवर्ती होता हुआ उनके पोषण के लिए (ईयसे) = सारे शरीर को व्याप्त करके गतिवाला होता है, अत: हे विश्वभेषज वात! तू इन इन्द्रियों को निर्दोष बना।
भावार्थ -
हम प्राणापान की साधना करते हुए सब इन्द्रियों को निर्दोष, नीरोग व सबल बनाएँ।
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