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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त

    आ त्वा॑गमं॒ शंता॑तिभि॒रथो॑ अरि॒ष्टता॑तिभिः। दक्षं॑ त उ॒ग्रमाभा॑रिषं॒ परा॒ यक्ष्मं॑ सुवामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । अ॒ग॒म॒म् । शंता॑तिऽभि: । अथो॒ इति॑ । अ॒रि॒ष्टता॑तिऽभि: । दक्ष॑म् । ते॒ । उ॒ग्रम् । आ । अ॒भा॒रि॒ष॒म् । परा॑ । यक्ष्म॑म् । सु॒वा॒मि॒ । ते॒ ॥१३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः। दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । अगमम् । शंतातिऽभि: । अथो इति । अरिष्टतातिऽभि: । दक्षम् । ते । उग्रम् । आ । अभारिषम् । परा । यक्ष्मम् । सुवामि । ते ॥१३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. वैद्य रोगी से कहता है कि मैं (त्वा) = तेरे समीप (शन्तातिभिः) = शान्ति का विस्तार करनेवाली [शं-कर] (अथो) = और (अरिष्टतातिभि:) = हिंसा न करनेवाली ओषधियों के साथ (आ अगमम्) = प्राप्त हुआ हूँ। २. मैं (ते) = तेरे लिए इनके ठीक विनियोग से (उग्रम्) = उद्गूर्ण-प्रबल (दक्षम्) = समृद्धिकर बल को (आभारिषम्) = लाया हूँ। बस, मैं शीघ्र ही (यक्ष्मम्) = रोग को (ते) = तुझसे (परा सुवामि) = दूर करता हूँ।

    भावार्थ -

    वैद्य रोगी को रोगों को शान्त करनेवाली तथा हानिरहित औषधों का सेवन कराके सबल व नीरोग बनाता है।

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