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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गोसमूहः छन्दः - जगती सूक्तम् - गोसमूह सूक्त

    इन्द्रो॒ यज्व॑ने गृण॒ते च॒ शिक्ष॑त॒ उपेद्द॑दाति॒ न स्वं मु॑षायति। भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॑न्नभि॒न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । यज्व॑ने । गृ॒ण॒ते । च॒ । शिक्ष॑ते । उप॑ । इत् । द॒दा॒ति॒ । न । स्वम् । मु॒षा॒य॒ति॒ । भूय॑:ऽभूय: । र॒यिम् । इत् । अ॒स्य॒ । व॒र्धय॑न् । अ॒भि॒न्ने । खि॒ल्ये । नि । द॒धा॒ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् ॥२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो यज्वने गृणते च शिक्षत उपेद्ददाति न स्वं मुषायति। भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये नि दधाति देवयुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । यज्वने । गृणते । च । शिक्षते । उप । इत् । ददाति । न । स्वम् । मुषायति । भूय:ऽभूय: । रयिम् । इत् । अस्य । वर्धयन् । अभिन्ने । खिल्ये । नि । दधाति । देवऽयुम् ॥२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (यचने) = यज्ञशील पुरुष के लिए (च) = और (गणते) = स्तवन करनेवाले मनुष्य के लिए (इन्द्रः) = वे प्रभु (शिक्षते) = गौएँ देते हैं। प्रभु (इत्) = निश्चय से (उपददाति) = इस यजनशील स्तोता के लिए इन गौओं को समीपता से प्राप्त कराते हैं, (स्वं न मुषायति) = प्रभु इस यजनशील के धन का अपहरण नहीं करते। २. (प्रभुभूयः) = अधिक और अधिक ही (अस्य) = इस यच्चा व स्तोता के (रयिम्) = धन को (इत्) = निश्चय से (वर्धयन्) = बढ़ाते हुए इस (देवयुम) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामनावाले पुरुष को (अभिन्ने) = दु:खों से (असंभिन्ने खिल्ये) = वासनाओं से अहत [अनाक्रान्त] स्वर्गलोक में (निदधाति) = स्थापित करते हैं।

    भावार्थ -

    प्रभु यज्ञशील पुरुष को खूब ही धन प्राप्त कराते हैं। इन धनों के द्वारा यज्ञ करनेवाले इस देवयु पुरुष को प्रभु दु:खों से रहित व वासनाओं से अनाक्रान्त स्वर्गलोक में स्थापित करते हैं-इसका घर स्वर्ग बन जाता है।

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