अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
गावो॒ भगो॒ गाव॒ इन्द्रो॑ म इछा॒द्गावः॒ सोम॑स्य प्रथ॒मस्य॑ भ॒क्षः। इ॒मा या गावः॒ स ज॑नास॒ इन्द्र॑ इ॒च्छामि॑ हृ॒दा मन॑सा चि॒दिन्द्र॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठगाव॑: । भग॑: । गाव॑: । इन्द्र॑: । मे॒ । इ॒च्छा॒त् । गाव॑: । सोम॑स्य । प्र॒थ॒मस्य॑ । भ॒क्ष: । इ॒मा: । या: । गाव॑: । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: । इ॒च्छामि॑ । हृ॒दा । मन॑सा । चि॒त् । इन्द्र॑म् ॥२१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
गावो भगो गाव इन्द्रो म इछाद्गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः। इमा या गावः स जनास इन्द्र इच्छामि हृदा मनसा चिदिन्द्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठगाव: । भग: । गाव: । इन्द्र: । मे । इच्छात् । गाव: । सोमस्य । प्रथमस्य । भक्ष: । इमा: । या: । गाव: । स: । जनास: । इन्द्र: । इच्छामि । हृदा । मनसा । चित् । इन्द्रम् ॥२१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
विषय - गौएँ ही ऐश्वर्य हैं
पदार्थ -
१. (गाव:) = गौएँ ही (भग:) = पुरुष का धन व सौभाग्य हैं, अत: (इन्द्र:) = प्रभु मे मेरे लिए (गाव: इच्छात्) = गौओं की कामना करें-मुझे गौएँ प्राप्त कराएँ। (गाव:) = ये गोदुग्ध ही (प्रथमस्य) = मुख्य हवियों में श्रेष्ठ (सोमस्य) = सोम का (भक्ष:) = भोजन बनता है। अभिषुत [निचोड़े हुए] सोम को गव्य दूध व दही में मिलकार ही आहुत करते हैं। २. हे (जनास:) = लोगो! (इमाः याः गाव:) = ये जो गौएँ हैं (सः) = [एव] वे ही इन्द्र हैं। गौएँ व प्रभु का उपजीव्योपजीवक भाव से (तारतम्य) = सा है। इन गोदुग्धों ने ही सात्त्विक बुद्धि को जन्म देकर हमें प्रभु-दर्शन कराना है। गोदुग्ध के सेवन से (हृदा) = हृदय से (मनसाचित्) = और निश्चयपूर्वक मन से (इन्द्रम्) = उस इन्द्र को (इच्छामि) = चाहता हूँ। गोदुग्धसेवन सात्विकवृत्ति को जन्म देकर हमें प्रभु-प्रवण करता है।
भावार्थ -
गौएँ ऐश्वर्य हैं। इनके दुग्ध से मिश्रित सोम को यज्ञों में आहुति होती हैं। इन गोदुग्धों के सेवन से मैं प्रभु-प्रवण वृत्तिवाला-प्रभु की ओर झुकाववाला बनता हूँ।
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