अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
यस्य॒ जुष्टिं॑ सो॒मिनः॑ का॒मय॑न्ते॒ यं हव॑न्त॒ इषु॑मन्तं॒ गवि॑ष्टौ। यस्मि॑न्न॒र्कः शि॑श्रि॒ये यस्मि॒न्नोजः॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । जुष्टि॑म् । सो॒मिन॑: । का॒मय॑न्ते । यम् । हव॑न्ते । इषु॑ऽमन्तम् । गोऽइ॑ष्टौ । यस्मि॑न् । अ॒र्क: । शि॒श्रि॒ये । यस्मि॑न् । ओज॑: । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य जुष्टिं सोमिनः कामयन्ते यं हवन्त इषुमन्तं गविष्टौ। यस्मिन्नर्कः शिश्रिये यस्मिन्नोजः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । जुष्टिम् । सोमिन: । कामयन्ते । यम् । हवन्ते । इषुऽमन्तम् । गोऽइष्टौ । यस्मिन् । अर्क: । शिश्रिये । यस्मिन् । ओज: । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
विषय - अर्कः, ओजः
पदार्थ -
१. (सोमिन:) = सोम का [वीर्यशक्ति का] अपने अन्दर रक्षण करनेवाले संयमी पुरुष (यस्य) = जिस प्रभु की (जष्टिम) = प्रीतिपूर्वक उपासना को (कामयन्ते) = चाहते हैं, (यम) = जिस (इषमन्तम) = [इष प्रेरणे] उत्कृष्ट प्रेरणा देनेवाले प्रभु को (गविष्टौ) = ज्ञान यज्ञों में (हवन्ते) = पुकारते हैं। प्रभु-प्रेरणा ही वस्तुत: अन्तर्ज्ञान का स्रोत बनती है। २. (यस्मिन्) = जिस प्रभु में (अर्क:) = ज्ञान का सूर्य शिश्रिये आश्रय करता है, (यस्मिन् ओज:) = जिसमें बल आश्रय करता है-प्रभु ही सम्पूर्ण ज्ञान और बल के कोश हैं। (स:) = वे (प्रभुनः) = हमें (अंहसः मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ -
सोमरक्षण करनेवाला संयमी पुरुष प्रभु का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है, ज्ञान-यज्ञों में इस प्रभ को ही पुकारता है। वे ही ज्ञान व बल के कोश हैं। वे प्रभु हमें ज्ञान और बल देकर पापों से मुक्त करें।
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