अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
यः प्र॑थ॒मः क॑र्म॒कृत्या॑य ज॒ज्ञे यस्य॑ वी॒र्यं प्रथ॒मस्यानु॑बुद्धम्। येनोद्य॑तो॒ वज्रो॒ऽभ्याय॒ताहिं॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । प्र॒थ॒म: । क॒र्म॒ऽकृत्या॑य । ज॒ज्ञे । यस्य॑ । वी॒र्य᳡म् । प्र॒थ॒मस्य॑ । अनु॑ऽबुध्दम् । येन॑ । उत्ऽय॑त: । वज्र॑: । अ॒भि॒ऽआय॑त । अहि॑म् । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यः प्रथमः कर्मकृत्याय जज्ञे यस्य वीर्यं प्रथमस्यानुबुद्धम्। येनोद्यतो वज्रोऽभ्यायताहिं स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । प्रथम: । कर्मऽकृत्याय । जज्ञे । यस्य । वीर्यम् । प्रथमस्य । अनुऽबुध्दम् । येन । उत्ऽयत: । वज्र: । अभिऽआयत । अहिम् । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 6
विषय - 'सर्वकर्ता सर्वशक्तिमान्' प्रभु
पदार्थ -
१. (य:) = जो (प्रथमः) = सर्वप्रमुख व सर्वव्यापक [प्रथ विस्तारे] प्रभु (कर्मकृत्याय) = सृष्टि रचनादि कर्मों को करने के लिए (जज्ञे) = प्रादुर्भूत हुए हैं। सृष्टि के बनने से पहले विद्यमान होते हुए जो सृष्टि का निर्माण करते हैं। (यस्य प्रथमस्य) = जिस सर्वव्यापक, सर्वाग्रणी प्रभु का (वीर्यम्) = पराक्रम (अनुबुद्धम्) = प्रत्येक पदार्थ के बोध में जाना गया है। सूर्यादि पिण्डों के अन्दर प्रभु की शक्ति ही तो कार्य कर रही है। २. (येन) = जिस प्रभु से (उद्यत:) = उठाया हुआ (वजः) = वज्र (अहिम्) = वासनारूप शत्र के (अभि आयत) = प्रति गतिवाला होता है। प्रभु ही उपासक के शत्रुभूत काम का हनन करते हैं, (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (अंहसः मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ -
प्रभु सृष्टि से पहले होते हुए सृष्टिरूप कर्म करते हैं। सूर्यादि पिण्डों में प्रभु का पराक्रम ही दृष्टिगोचर हो रहा है। प्रभु ही उपासक की शत्रुभूत वासना को नष्ट करते हैं। ये प्रभु हमें पाप से मुक्त करें।
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