अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
सूक्त - मृगारः
देवता - वायुः, सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
यः सं॑ग्रा॒मान्न॑यति॒ सं यु॒धे व॒शी यः पु॒ष्टानि॑ संसृ॒जति॑ द्व॒यानि॑। स्तौमीन्द्रं॑ नाथि॒तो जो॑हवीमि॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । स॒म्ऽग्रा॒मान् । नय॑ति । सम् । यु॒धे । व॒शी । य: । पु॒ष्टानि॑ । स॒म्ऽसृ॒जति॑ । द्व॒यानि॑ । स्तौमि॑ । इन्द्र॑म् । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यः संग्रामान्नयति सं युधे वशी यः पुष्टानि संसृजति द्वयानि। स्तौमीन्द्रं नाथितो जोहवीमि स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । सम्ऽग्रामान् । नयति । सम् । युधे । वशी । य: । पुष्टानि । सम्ऽसृजति । द्वयानि । स्तौमि । इन्द्रम् । नाथित: । जोहवीमि । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
विषय - 'संग्राम-नेता, गृहप्रणेता' प्रभु
पदार्थ -
१. (य:) = जो प्रभु (वशी) = सबको वश में करनेवाले हैं और (युधे) = संहार के लिए (संग्रामान सं नयति) = संग्रामों को सम्यक् प्राप्त कराते हैं। (यः) = जो प्रभु (पुष्टानि) = शक्ति से खुब समृद्ध (द्वयानि)= स्त्री-पुंपात्मक मिथुनों को (संसृजति) = परस्पर संसृष्ट करते हैं, उन (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् परमैश्वर्यशाली प्रभु को (स्तौमि) = मैं स्तुत करता हूँ। २. (नाथितः) = वासनाओं से उपतप्त हुआ-हुआ उस प्रभु को ही (जेहवीमि) = पुकारता हूँ। (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहस: मुञ्चतु) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ -
प्रभु ही संग्नामों में हमसे युद्ध कराते हैं। प्रभु ही हमें उत्तम सन्तानों को जन्म देने योग्य बनाते हैं। हम प्रभु का स्मरण करते हैं, प्रभु को ही पुकारते हैं। वे हमें पापमुक्त करें।
अगला सूक्त भी 'मृगार' ऋषि का ही है =
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