अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
सूक्त - मृगारः
देवता - वायु, सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
वा॒योः स॑वि॒तुर्वि॒दथा॑नि मन्महे॒ यावा॑त्म॒न्वद्वि॒शथो॒ यौ च॒ रक्ष॑थः। यौ विश्व॑स्य परि॒भू ब॑भू॒वथु॒स्तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒यो: । स॒वि॒तु: । वि॒दथा॑नि । म॒न्म॒हे॒ । यौ । आ॒त्म॒न्ऽवत् । वि॒शथ॑: । यौ । च॒ । रक्ष॑थ: । यौ । विश्व॑स्य । प॒रि॒भू इति॑ प॒रि॒ऽभू । ब॒भू॒वथु॑: । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वायोः सवितुर्विदथानि मन्महे यावात्मन्वद्विशथो यौ च रक्षथः। यौ विश्वस्य परिभू बभूवथुस्तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठवायो: । सवितु: । विदथानि । मन्महे । यौ । आत्मन्ऽवत् । विशथ: । यौ । च । रक्षथ: । यौ । विश्वस्य । परिभू इति परिऽभू । बभूवथु: । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
विषय - 'वायु व सूर्य' का यथोचित सेवन
पदार्थ -
१. (वायो:) = [वा गतिगन्धनयोः] गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाले वायुतत्त्व के तथा (सवितुः) = सबको कार्यों में प्रेरित करनेवाले (सविता) = सूर्यदेव के (विदथानि) = वेदितव्य श्रुतिविहित कमों का (मनामहे) = हम मनन करते हैं। श्रुति में वायु व सूर्य के विषय में जो ज्ञान दिया गया है तथा उनके सेवन का जो प्रकार बताया गया है, उसे हम सम्यक समझने का प्रयत्न करते हैं। (यौ) = जो वायु और सूर्य (आत्मन्यत्) = आत्मावाले (स्थावर) = जंगम जगत् में (विशथ:) = प्रवेश करते हैं। वायु प्राणरूप से नासिका में प्रवेश करती है तो सूर्य चक्षु बनकर आँखों में प्रवेश करता है (च) = और इसप्रकार शरीर में प्रवेश करके (यौ) = जो वायु और सूर्य (रक्षथ:) = सबका रक्षण करते हैं। २. (यौ:) = जो दोनों वायु और सूर्य (विश्वस्य) = सम्पूर्ण जगत् के परिभू-परिग्रहीता (बभूवथ:) = होते है तो वे दोनों (न:) = हमें (अंहसः) = पापों व कष्टों से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें। वायु व सूर्य का सेवन शरीर को नौरोग बनाकर हमें स्वस्थ मनवाला बनाता है। इसप्रकार ये हमें पापों से मुक्त करते हैं।
भावार्थ -
वाय व सर्य का ठीक ज्ञान प्राप्त करके उनके यथोचित सेवन से हम स्वस्थ शरीर व स्वस्थ्य मनवाले बनते है और इसप्रकार ये वायु और सूर्य हमें पापवृत्ति से बचाते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें