अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
सूक्त - मृगारः
देवता - वायुः, सविता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
ययोः॒ संख्या॑ता॒ वरि॑मा॒ पार्थि॑वानि॒ याभ्यां॒ रजो॑ युपि॒तम॒न्तरि॑क्षे। ययोः॑ प्रा॒यं नान्वा॑नशे॒ कश्च॒न तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठययो॑: । सम्ऽख्या॑ता । वरि॑मा । पार्थि॑वानि । याभ्या॑म् । रज॑: । यु॒पि॒तम् । अ॒न्तरि॑क्षे । ययो॑: । प्र॒ऽअ॒यम् । न । अ॒नु॒ऽआ॒न॒शे । क: । च॒न । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ययोः संख्याता वरिमा पार्थिवानि याभ्यां रजो युपितमन्तरिक्षे। ययोः प्रायं नान्वानशे कश्चन तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठययो: । सम्ऽख्याता । वरिमा । पार्थिवानि । याभ्याम् । रज: । युपितम् । अन्तरिक्षे । ययो: । प्रऽअयम् । न । अनुऽआनशे । क: । चन । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
विषय - रजः युपितम् अन्तरिक्षे
पदार्थ -
१. (ययो:) = जिन वायु और सूर्य के (पार्थिवानि) = पृथिवी पर होनेवाले (वरिमा) महत्त्वपूर्ण कार्य (संख्याता) = लोगों से सम्यक् आख्यात होते हैं-कहे जाते हैं। पृथिवी से उत्पन्न होनेवाले सब वनस्पति वायु व सूर्य की महिमा से ही विकसित होते हैं। (याभ्याम्) = जिन वायु व सूर्य के द्वारा (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (रज:) = वृष्टि का कारणभूत उदक (युपितम्) = मूच्छित हुआ-हुआ धारण किया जाता है २.( ययो:) = जिन वायु और सूर्य के (प्रायम्) = प्रकृष्ट गमन को (कश्चन) = कोई अन्य देव (न अम्बानशे) = अनुगमन करेन के लिए समर्थ नहीं होता (तौ) = वे वायु व (सूर्यदेव न:) = हमें (अंहसः मुञ्चतम्) = पाप व कष्टों से मुक्त कर दें।
भावार्थ -
वायु व सूर्य के महत्वपूर्ण कार्य इस पृथिवी पर दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हीं के द्वारा अन्तरिक्ष में जल मेघरूप से धारण किया जाता है। इनकी प्रकृष्ट गति अन्य सब देवों को लाँघ जाती है। ये देव हमें पापों से मुक्त करें।
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