अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
सूक्त - मृगारः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
म॒न्वे वां॑ मित्रावरुणावृतावृधौ॒ सचे॑तसौ॒ द्रुह्व॑णो॒ यौ नु॒देथे॑। प्र स॒त्यावा॑न॒मव॑थो॒ भरे॑षु॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्वे । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ॒ । ऋ॒त॒ऽवृ॒धौ॒ । सऽचे॑तसौ । द्रुह्व॑ण: । यौ । नु॒देथे॒ इति॑ । प्र । स॒त्यऽवा॑नम् । अव॑थ: । भरे॑षु । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्वे वां मित्रावरुणावृतावृधौ सचेतसौ द्रुह्वणो यौ नुदेथे। प्र सत्यावानमवथो भरेषु तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठमन्वे । वाम् । मित्रावरुणौ । ऋतऽवृधौ । सऽचेतसौ । द्रुह्वण: । यौ । नुदेथे इति । प्र । सत्यऽवानम् । अवथ: । भरेषु । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
विषय - 'ऋतवृधौ सचेतसौ' मित्रावरुणौ
पदार्थ -
१. 'मित्र' शब्द स्नेह का सूचक है, 'वरुण' द्वेष-निवारण व निषता का प्रतीक है। हे (मित्रावरुणौ) = स्नेह व नितेषता के भावो! मैं (वां मन्वे) = आपका मनन करता हूँ। आप (ऋतावृधौ) = मेरे जीवन में ऋत [ठीक, यज्ञ] का वर्धन करनेवाले हो तथा (सचेतसौ) = हमारे जीवनों को चेतना [ज्ञान] से युक्त करते हो। आप वे हैं (यौ) = जो (इहणः नुदेथे) = द्रोह करनेवालों को हमसे दूर करते हो। २. और (सत्यावानम्) = सत्ययुक्त पुरुष को (भरेषु) = संग्रामों में (प्र अवध:) = प्रकर्षण रक्षित करते हो। (तौ) = वे आप-मित्र और वरुण (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से मुञ्चतम् मुक्त करो।
भावार्थ -
हम स्नेह व निषता का पाठ पढ़ें। इससे हममें ऋत व चेतना का वर्धन होगा और द्रोह की भावना समाप्त होकर हमारा जीवन सत्ययुक्त होगा।
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