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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वृषभः, स्वापनम् छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वापन सूक्त

    स्वप्न॑ स्वप्नाभि॒कर॑णेन॒ सर्वं॒ नि ष्वा॑पया॒ जन॑म्। ओ॑त्सू॒र्यम॒न्यान्त्स्वा॒पया॑व्यु॒षं जा॑गृताद॒हमिन्द्र॑ इ॒वारि॑ष्टो॒ अक्षि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वप्न॑ । स्व॒प्न॒ऽअ॒भि॒कर॑णेन । सर्व॑म् । नि । स्वा॒प॒य॒ । जन॑म् । आ॒ऽउ॒त्सू॒र्यम् । अ॒न्यान् । स्वा॒पय॑ । आ॒ऽव्यु॒षम् । जा॒गृ॒ता॒त् । अ॒हम् । इन्द्र॑:ऽइव । अरि॑ष्ट: । अक्षि॑त: ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वप्न स्वप्नाभिकरणेन सर्वं नि ष्वापया जनम्। ओत्सूर्यमन्यान्त्स्वापयाव्युषं जागृतादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वप्न । स्वप्नऽअभिकरणेन । सर्वम् । नि । स्वापय । जनम् । आऽउत्सूर्यम् । अन्यान् । स्वापय । आऽव्युषम् । जागृतात् । अहम् । इन्द्र:ऽइव । अरिष्ट: । अक्षित: ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. राजा स्वप्न को सम्बोधित करते हुए कहता है कि (स्वप्न) = निद्रा की देवते! (स्वप्राधिकरणेन) = नींद के सब साधनों से (सर्वं जनम्) = सब लोगों को (निष्वापय) = सुला दे। राजा राष्ट्र में इसप्रकार की व्यवस्थाएँ करता है कि लोग सूर्यास्त के साथ सोने की तैयारी करें। नित्य कर्मों से निवृत्त होकर सो जाएँ। २. (आ उत्सूर्यम्) = सूर्योदय तक (अन्यान् स्वापय) = हे निद्रे! औरों को तो सुला, बस (अहम्) = मैं (इन्द्रः इव) = एक जितेन्द्रिय पुरुष की भाँति (आव्यूषम्) = उषाकाल तक (जागृतात्) = जागता रहूँ। राजा ही सो गया तो राष्ट्र-रक्षा कैसे होगी? राष्ट्र-यज्ञ को चलानेवाला ब्रह्मा यह राजा ही तो है, इसके मन्त्री, कार्यकर्ता व सेवक ही ऋत्विज हैं। ये सो गये तो यज्ञ समाप्त हो जाएगा। राजा सोया तो राष्ट्र में सदा चोरी आदि के भय से लोग निश्चिन्त निद्रा प्राप्त  न कर सकेंगे। राजा जागता है तो प्रजा निश्चिन्त हो निन्द्रा ले-पाती है। मैं (अक्षितः) = [न क्षितं यस्मात्] राष्ट्र को क्षीण न होने दें, (अरिष्ट:) = [न रिष्टं यस्मात्] राष्ट्र को हिंसित न होने दूं। जागता हुआ राजा ही 'अक्षित व अरिष्ट' होता है। प्रभु के अप्रिय 'काम' पर आक्रमण करके हम उसे पराभूत करें और आगे बढ़ें।

    भावार्थ -

    राजा सदा जागरूक बनकर प्रजा को क्षीण व हिंसित होने से बचाए।

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